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मेवाड़ का गुहिल वंश: मुख्य बिंदु

 मेवाड़ का भूगोल एवं नामकरण


  1. उदयपुर, राजसमंद, चित्तौड़गढ़ और प्रतापगढ़ सहित आस-पास का क्षेत्र मेवाड़ कहलाता है।
  2. प्राचीन नाम: शिवि, प्राग्वाट, मेद्घाट।
  3. मेर/मेद जाति के कारण इसका नाम मेद्घाट पड़ा।

गुहिल वंश की उत्पत्ति

  1. अबुल फजल: गुहिलों को ईरान के बादशाह नौशेरवां आदिल की संतान मानते हैं।
  2. डी. आर. भंडारकर और डॉ. गोपीनाथ शर्मा: गुहिलों को ब्राह्मण वंश से जोड़ते हैं।
  3. मुँहणौत नैणसी: प्रारंभिक रूप से ब्राह्मण एवं जानकारी के आधार पर क्षत्रिय।
  4. डॉ. गोरीशंकर ओझा: गुहिलों को सूर्यवंशी मानते हैं।
  5. कर्नल जेम्स टॉड: गुहिलों को विदेशी वंशज बताते हैं।

गुहिल वंश की स्थापना

  1. स्थापक: गुह (गुफा में जन्म के कारण नाम पड़ा)।
  2. समर्थक कथा: शिलादित्य की रानी पुष्पावती ने विदेशी आक्रमण के समय गुफा में एक पुत्र को जन्म दिया, जो गुह कहलाया।

बप्पा रावल (728-753 ई.)

मुख्य बिंदु

  1. जन्म: ईडर के राजा नागादित्य की हत्या के बाद बप्पा जंगल में पहुँचे।
  2. हारीत ऋषि से संबंध: ऋषि की कृपा से मेवाड़ का राज्य प्राप्त किया।
  3. राज्य विजय:
    • 734 ई. में मौर्य शासक मान मोरी को पराजित कर चित्तौड़ पर अधिकार किया।
    • श्यामलदास के अनुसार, चित्तौड़ दुर्ग विजय का समय 734 ई. है।
  4. उपाधियाँ: 'हिंदू सूर्य', 'राजगुरु', और 'चक्कवै'।
  5. राजधानी: नागदा।

धार्मिक योगदान

  1. पाशुपत संप्रदाय के अनुयायी।
  2. एकलिंगजी मंदिर: कैलाशपुरी (उदयपुर) में निर्माण।
  3. एकलिंगजी को राजा घोषित किया और स्वयं को दीवान।
  4. यह परंपरा आज तक चली आ रही है।

सिक्के

  1. तांबे और स्वर्ण धातु के सिक्के।
  2. स्वर्ण सिक्के का भार: 119 ग्रेन।
  3. प्रतीक: कामधेनु, शिवलिंग, त्रिशूल, चमर आदि।

मृत्यु एवं स्मारक

  1. स्थान: नागदा।
  2. समाधि स्थल: एकलिंगजी से एक मील दूर 'बप्पा रावल' के नाम से प्रसिद्ध।
  3. पाकिस्तान के रावलपिंडी का नामकरण: बप्पा रावल के ठिकाने के आधार पर।






बप्पा रावल और कालभोज से संबंधित तथ्य:


बप्पा रावल का नाम और उपाधि



  1. सी. बी. वैद्य: बप्पा रावल को 'चार्ल्स मार्टेल' की उपाधि दी, जिसने अरब आक्रमण को विफल किया।
  2. डॉ. रामप्रसाद और श्यामलदास ('वीर विनोद'): बप्पा कोई नाम नहीं, बल्कि एक उपाधि है।
  3. नैणसी और कर्नल टॉड: बप्पा रावल का मूल नाम कालभोज था।
  4. रणकपुर प्रशस्ति: बप्पा रावल और कालभोज को अलग-अलग व्यक्तियों के रूप में दर्शाती है।

अल्लट (आलु-रावल)

  1. बप्पा रावल के वंशज अल्लट ने हुण राजकुमारी हरियादेवी से विवाह किया।
  2. अल्लट ने आहड़ को अपनी दूसरी राजधानी बनाया।
  3. अल्लट ने वराह मंदिर का निर्माण करवाया और मेवाड़ में नौकरशाही का गठन किया।
  4. पूर्व में मेवाड़ की राजधानी नागदा थी।

गुहिल वंश में विभाजन और शाखाएँ

  1. रणसिंह (कर्णसिंह): गुहिल वंश के राजा।
    • दो पुत्र: क्षेमसिंह और राहप।
  2. क्षेमसिंह: रावल शाखा के संस्थापक।
  3. राहप: सिसोदिया शाखा के संस्थापक; सीसोदा गाँव की स्थापना।
  4. रावल शाखा का अंत अलाउद्दीन खिलजी की चित्तौड़ विजय (1303) से हुआ।
  5. सिसोदिया शाखा ने मेवाड़ का शासन संभाला।

जैत्रसिंह (1213-1253 ई.)

  1. राजधानी स्थानांतरण:
    • दिल्ली के सुल्तान इल्तुतमिश के नागदा आक्रमण के कारण राजधानी चित्तौड़ स्थानांतरित की।
  2. सैन्य विजय:
    • सोनगरा चौहान उदयसिंह को पराजित किया।
    • इल्तुतमिश को 1231 ई. में नागौर के पास परास्त किया।
  3. गौरवपूर्ण शासक:
    • डॉ. गौरीशंकर हीराचंद ओझा ने उन्हें मेवाड़ के महान शासकों में से एक माना।
    • डॉ. दशरथ शर्मा ने उनके शासनकाल को मेवाड़ का स्वर्णकाल कहा।

तेजसिंह (1253-1273 ई.)

  1. उपाधि: 'परमभट्टारक', 'महाराजाधिराज', 'परमेश्वर'।
  2. साहित्यिक उन्नति:
    • उनके समय में 'श्रावक प्रतिक्रमणसूत्रचूर्णि' की रचना हुई।
  3. धार्मिक निर्माण:
    • रानी जयतल्लदेवी ने चित्तौड़ में श्याम पार्श्वनाथ मंदिर का निर्माण करवाया।

समरसिंह (1273-1302 ई.)

  1. तुर्कों को गुजरात से खदेड़ा।
  2. उनके पुत्र:
    • रतनसिंह: मेवाड़ के अंतिम रावल।
    • कुंभकर्ण: नेपाल में शाही वंश की स्थापना की।

रावल रतनसिंह (1302-1303 ई.) और चित्तौड़ का युद्ध

  1. युद्ध कारण:
    • चित्तौड़ का सामरिक और व्यापारिक महत्व।
    • गुजरात और दक्षिण भारत पर प्रभुत्व स्थापित करने के लिए।
  2. युद्ध विवरण:
    • 28 जनवरी, 1303 को अलाउद्दीन खिलजी ने चित्तौड़ पर आक्रमण किया।
    • किले में रसद सामग्री समाप्त होने पर गोरा और बादल के नेतृत्व में राजपूतों ने शत्रु पर हमला किया।
    • रानी पद्मिनी और 1600 स्त्रियों ने जौहर किया (चित्तौड़ का प्रथम साका)।
    • 26 अगस्त, 1303 को रावल रतनसिंह वीरगति को प्राप्त हुए।
  3. परिणाम:
    • अलाउद्दीन खिलजी ने चित्तौड़ का नाम बदलकर खिज्राबाद रखा।
    • खिज्र खां को चित्तौड़ का शासक नियुक्त किया।

विशेष तथ्य

  1. मलिक मोहम्मद जायसी ने 'पद्मावत' में युद्ध का कारण रानी पद्मिनी को बताया, जो ऐतिहासिक रूप से विवादित है।
  2. अलाउद्दीन ने चित्तौड़ में गंभीरी नदी पर पुल बनवाया।
  3. डॉ. दशरथ शर्मा के अनुसार, रानी पद्मिनी के विषय में घटनाएँ काल्पनिक हो सकती हैं, क्योंकि यह विवरण 1540 ई. में लिखा गया।




राणा हमीर सिसोदिया और उनकी उपलब्धियाँ

प्रशंसा और उपाधियाँ

  1. कीर्तिस्तम्भ प्रशस्ति (चित्तौड़गढ़): राणा हमीर को 'विषम घाटी पंचानन' (दुर्गम घाटियों का शेर) कहा गया।
  2. कर्नल जेम्स टॉड: उन्हें अपने समय का प्रबल हिंदू शासक माना।
  3. रसिकप्रिया की टीका (महाराणा कुम्भा): राणा हमीर को वीर राजा कहा गया।

निर्माण कार्य

  • चित्तौड़गढ़ दुर्ग में अन्नपूर्णा माता के मंदिर का निर्माण (मोकलजी के शिलालेख में उल्लेख)।

महत्वपूर्ण युद्ध और उपलब्धियाँ

  • सिंगोली का युद्ध:
    • दिल्ली के सुल्तान मुहम्मद बिन तुगलक ने राणा हमीर के समय मेवाड़ पर आक्रमण किया।
    • राणा हमीर ने तुगलक को हराया और चित्तौड़ का स्वतंत्र शासक बनने का मार्ग प्रशस्त किया।

उत्तराधिकारी

  • 1364 ई. में राणा हमीर की मृत्यु के बाद उनके पुत्र राणा क्षेत्रसिंह (महाराणा खेता) मेवाड़ के शासक बने।

राणा क्षेत्रसिंह (1364-1382 ई.)

सैन्य और प्रशासनिक उपलब्धियाँ

  1. अपने शासनकाल में अजमेर, जहाजपुर, माण्डल और छप्पन को मेवाड़ में सम्मिलित किया।
  2. मालवा के दिलावर खां गोरी को परास्त कर मालवा-मेवाड़ संघर्ष की शुरुआत की।

मृत्यु

  • 1382 ई. में बूंदी (हाड़ौती) के लालसिंह हाड़ा से युद्ध करते हुए राणा क्षेत्रसिंह की मृत्यु हो गई।
  • इस युद्ध में लालसिंह हाड़ा भी मारे गए।



  1. राणा क्षेत्रसिंह की एक दासी (खातिन जाति) से दो पुत्र (चाचा और मेरा) हुए।
  2. चाचा और मेरा ने बाद में राणा क्षेत्रसिंह के पौत्र महाराणा मोकल की हत्या कर दी।




राणा लाखा या राणा लक्षसिंह (1382–1421 ई.)

प्रशासन और उपलब्धियाँ

  1. बदनौर प्रदेश को अपने अधीन किया।
  2. आर्थिक समृद्धि:
    • जावर की खदानों से चाँदी और सीसे के उत्पादन ने मेवाड़ की आर्थिक स्थिति को सुदृढ़ किया।
  3. संस्कृति और साहित्य:
    • राणा लाखा के दरबार में संस्कृत विद्वान झोटिंग भट्ट और बनेश्वर भट्ट थे।
  4. पिछोला झील:
    • पिच्छु बनजारे ने उनके शासनकाल में पिछोला झील का निर्माण करवाया।

पारिवारिक और राजकीय घटनाएँ

  • राणा लाखा ने राठौड़ रणमल की बहन हंसाबाई से विवाह किया।
  • विवाह के समझौते के अनुसार, हंसाबाई से जन्मे पुत्र मोकल को मेवाड़ का उत्तराधिकारी बनाया गया, जबकि बड़े पुत्र चूँडा ने राज्य के अधिकार का त्याग किया।
  • चूँडा को "मेवाड़ का भीष्म पितामह" कहा जाता है।

राणा मोकल (1421–1433 ई.)

प्रारंभिक शासन

  • पिता राणा लाखा की मृत्यु के समय मोकल मात्र 12 वर्ष के थे।
  • राज्य का प्रशासन बड़े भाई चूँडा ने संभाला।

उपलब्धियाँ

  1. युद्ध और सैन्य विजय:
    • 1428 ई. में रामपुरा का युद्ध:
      • नागौर के शासक फिरोज खां और गुजरात की सेना को हराया।
  2. संरक्षण और निर्माण कार्य:
    • समिधेश्वर मंदिर (चित्तौड़ दुर्ग) का जीर्णोद्धार, जिसे अब "मोकल मंदिर" कहा जाता है।
    • एकलिंग मंदिर का जीर्णोद्धार।

हत्या और षड्यंत्र

  • 1433 ई. में चाचा और मेरा (मोकल के सौतेले भाई) ने मोकल की हत्या कर दी।
  • हत्या का कारण: मोकल द्वारा मजाक में किया गया ताना।

राणा कुंभा (1433–1468 ई.)

प्रारंभिक समस्याएँ और समाधान

  1. गृह विद्रोह:
    • चाचा और मेरा को मारकर कुंभा ने विद्रोह का दमन किया।
  2. रणमल राठौड़ की चुनौती:
    • कुंभा ने 1438 ई. में रणमल को उसकी प्रेमिका भारमली के सहयोग से मरवा दिया।

सैन्य उपलब्धियाँ

  1. सारंगपुर युद्ध (1437 ई.):
    • मालवा के सुल्तान महमूद खिलजी प्रथम को हराया और बंदी बनाया।
  2. बदनोर युद्ध (1457 ई.):
    • गुजरात और मालवा की संयुक्त सेनाओं को हराया।
  3. नागौर का युद्ध:
    • शम्स खान की सहायता की, फिर उसे हराकर नागौर पर अधिकार कर लिया।

सांस्कृतिक योगदान

  1. विजय स्तंभ:
    • सारंगपुर विजय के उपलक्ष्य में बनवाया गया।
  2. घोसुंडी की बावड़ी:
    • कुंभा की बहू रानी श्रृंगार देवी ने बनवाई।
  3. विद्वानों और शिल्पियों का संरक्षण:
    • उनके दरबार में शिल्पी मना, फना, विसल और विद्वान योगेश्वर व भट्ट विष्णु थे।

प्रमुख संधियाँ

  1. आवल-बावल संधि (1453 ई.):
    • मेवाड़-मारवाड़ के बीच सीमा निर्धारण।
  2. चंपानेर संधि (1456/57 ई.):
    • गुजरात और मालवा के सुल्तानों ने मेवाड़ पर संयुक्त आक्रमण की योजना बनाई।

समृद्ध शासन और साम्राज्य विस्तार

  • राणा कुंभा ने मेवाड़ को सामरिक, सांस्कृतिक और आर्थिक रूप से सशक्त बनाया, जो उनके शासनकाल की सबसे बड़ी उपलब्धि थी।





राणा लाखा (1382–1421 ई.)


  1. प्रशासनिक और आर्थिक योगदान:

    • बदनौर प्रदेश को अधीन कर लिया।
    • जावर की खदानों से चांदी और सीसा की निकासी बढ़ी, जिससे आर्थिक समृद्धि आई।
    • पिच्छु बनजारे ने राणा लाखा के शासनकाल में पिछोला झील का निर्माण करवाया।
  2. चूँडा का त्याग:

    • राणा लाखा ने हंसाबाई से विवाह किया और मोकल का जन्म हुआ।
    • चूँडा ने त्याग करते हुए गद्दी मोकल को सौंपने का निर्णय लिया।
    • चूँडा के त्याग के कारण उन्हें "मेवाड़ का भीष्म पितामह" कहा गया।

राणा मोकल (1421–1433 ई.)

  1. शासनकाल की शुरुआत:

    • बाल्यावस्था में मोकल राजा बने; प्रारंभिक शासन का भार उनके भाई चूँडा ने संभाला।
    • चूँडा के मांडू चले जाने के बाद, रणमल राठौड़ ने मेवाड़ पर प्रभाव बढ़ाना शुरू किया।
  2. सैन्य और स्थापत्य योगदान:

    • 1428 ई. में रामपुरा के युद्ध में फिरोज खां और गुजरात की सेना को पराजित किया।
    • समिधेश्वर मंदिर और एकलिंग मंदिर का जीर्णोद्धार करवाया।
    • दरबार में प्रसिद्ध शिल्पकार मना, फना, और विसल तथा विद्वान योगेश्वर और भट्ट विष्णु थे।
  3. हत्या:

    • मोकल की हत्या उनके चाचा और मेरा द्वारा महपा पंवार की साजिश में की गई।

राणा कुंभा (1433–1468 ई.)

  1. प्रारंभिक चुनौतियां:

    • बाल्यावस्था में कुंभा राजा बने।
    • कुंभा ने चाचा और मेरा की हत्या करवाकर विद्रोहियों का दमन किया।
    • रणमल राठौड़ की हत्या 1438 ई. में उनकी प्रेमिका भारमली की सहायता से करवाई।
  2. सैन्य उपलब्धियां:

    • 1437 ई. में सारंगपुर के युद्ध में महमूद खिलजी को हराया।
    • 1457 ई. में गुजरात और मालवा की संयुक्त सेनाओं को हराया।
    • नागौर के युद्ध में शम्स खान को पराजित कर नागौर पर अधिकार किया।
  3. संधियां और संबंध:

    • 1453 ई. में 'आवल-बावल संधि' के तहत मेवाड़-मारवाड़ सीमा का निर्धारण हुआ।
    • राव जोधा और राणा कुंभा के संबंध बेहतर हुए।
  4. संस्कृति और स्थापत्य:

    • विजय स्तंभ का निर्माण सारंगपुर विजय की स्मृति में करवाया।
    • रानी श्रृंगार देवी ने घोसुंडी की बावड़ी का निर्माण करवाया।
    • दरबार में सोन सुंदर, कामुनी सुंदर जैसे जैन विद्वान थे।
  5. उपाधियां:

    • हिंदु सुरताण: हिंदू शासकों का हितैषी।
    • महाराजाधिराज: राजाओं का राजा।
    • शैलगुरू और हालगुरू: दुर्ग निर्माण और युद्ध-कला में निपुणता के लिए।
    • दानगुरू: दानशीलता के लिए।
    • अभिनव भरताचार्य: संगीत और कला का संरक्षक।


संगीत और साहित्य में योगदान

  1. संगीत कला:

    • महाराणा कुम्भा स्वयं वीणा बजाते थे।
    • संगीत ग्रंथ:
      • संगीतराज (5 भाग): पाठरत्नकोश, गीतरत्नकोश, वाद्यरत्नकोश, नृत्यरत्नकोश, रसरत्नकोश।
      • संगीतमीसा, सूदप्रबंध।
    • गुरु: सारंग व्यास।
    • 'अभिनव भरताचार्य' की उपाधि।
  2. रचनाएँ:

    • चंदीशतक की व्याख्या।
    • गीतगोविंद और रसिकप्रिया की टीका।
    • एकलिंग महात्म्य का प्रारंभिक भाग।
    • राजवर्णन, संगीतक्रमदीपक, हरिवर्तिका।

दरबारी विद्वान और शिल्पी

  1. मंडन:

    • प्रमुख वास्तुकार।
    • ग्रंथ: राजवल्लभ, प्रसाद मंडन, देवमूर्ति प्रकरण, शकुन मंडन।
  2. नापा:

    • ग्रंथ: वास्तु मंजरी।
  3. गोविंद:

    • ग्रंथ: कलानिधि, द्वार दीपिका।
  4. कान्हड़ व्यास:

    • एकलिंग महात्म्य की रचना।
  5. अत्रि भट्ट और महेश भट्ट:

    • कीर्ति स्तम्भ प्रशस्ति।
  6. सोन सुंदर और कामुनी सुंदर:

    • जैन विद्वान।

महाराणा कुम्भा की उपाधियाँ

  1. महाराजाधिराज: राजाओं के राजा।
  2. अभिनव भरताचार्य: संगीत में निपुण।
  3. हिंदु सुरताण: हिंदू शासकों का रक्षक।
  4. हालगुरू: पर्वतीय दुर्गों के स्वामी।
  5. शैलगुरू: युद्धकला में निपुण।
  6. दानगुरू: दानी।
  7. अश्वपति: कुशल घुड़सवार।
  8. राजगुरू: राजनीतिक सिद्धांतों का ज्ञाता।


महाराणा कुम्भा के काल में स्थापत्य, कला, और साहित्य का ऐसा समृद्ध स्वरूप देखने को मिलता है, जो उन्हें महान राजा, कुशल प्रशासक, और विद्यानुरागी के रूप में स्थापित करता है।







राणा कुम्भा और ऊदा/उदयसिंह

  1. राणा कुम्भा की हत्या: 1468 ई. में उनके पुत्र ऊदा ने कुम्भलगढ़ में मामादेव कुंड पर उनकी हत्या कर दी।
  2. ऊदा का शासन:
    • 1468-1473 ई. तक शासन किया।
    • पितृहंता होने के कारण राजपूत सरदारों ने ऊदा को अस्वीकार कर दिया।
  3. ऊदा का पतन:
    • रायमल को राणा बनाने के लिए सरदारों ने संघर्ष किया।
    • दाड़िमपुर के युद्ध में रायमल ने ऊदा को हराया।
    • ऊदा कुंभलगढ़ से भागकर सोजत, बीकानेर और मांडू गया।
    • ग्यासुद्दीन की सहायता मांगने पर उसने अपनी पुत्री का विवाह ग्यासुद्दीन से करवाया।
    • बिजली गिरने से ऊदा की मृत्यु हो गई।

राणा रायमल (1473-1509 ई.)

  1. ग्यासुद्दीन के आक्रमण:
    • पहला युद्ध: ग्यासुद्दीन की सेना पर विजय।
    • दूसरा युद्ध: मांडलगढ़ में जफर खां की सेना पर विजय।
    • तीसरा युद्ध: 1503 ई. में नासिरूद्दीन के नेतृत्व में मेवाड़ पर आक्रमण। उत्तराधिकारी युद्ध के कारण मेवाड़ पराजित हुआ।
  2. चर्चित घटनाएँ:
    • सामंत भवानीदास की पुत्री का नासिरूद्दीन द्वारा अपहरण।
    • चित्तौड़ी बेगम के रूप में प्रसिद्ध।


रायमल के पुत्र और उत्तराधिकार विवाद

  1. संतान: 11 रानियाँ, 13 पुत्र, 2 पुत्रियाँ।
    • प्रमुख पुत्र: पृथ्वीराज, जयमल, संग्राम सिंह (सांगा), रायसिंह।
    • संग्राम सिंह (सांगा) सबसे छोटे थे।
  2. उत्तराधिकारी विवाद:
    • ज्योतिषी और चारणी द्वारा भविष्यवाणी कि संग्राम सिंह मेवाड़ के स्वामी बनेंगे।
    • पृथ्वीराज और जयमल ने संग्राम सिंह पर हमला किया, जिसमें उनकी एक आँख फूट गई।
    • संग्राम सिंह को राठौड़ बीदा और कर्मचंद पंवार की शरण मिली।

पृथ्वीराज और जयमल की मृत्यु

  1. जयमल की मृत्यु:
    • सोलंकियों से युद्ध में मारा गया।
    • एक अन्य मत के अनुसार, राव सुरताण की पुत्री ताराबाई से विवाह प्रस्ताव के कारण जयमल की हत्या हुई।
  2. पृथ्वीराज की मृत्यु:
    • बहन आनंदा बाई के पति राव जगमाल ने जहर देकर पृथ्वीराज की हत्या की।
    • पृथ्वीराज को "उडणा" पृथ्वीराज भी कहा जाता है।
    • अजमेर दुर्ग का नाम तारागढ़ रखा।

संग्राम सिंह का उत्तराधिकारी बनना

  1. परिस्थितियाँ:
    • पृथ्वीराज और जयमल की मृत्यु के बाद संग्राम सिंह उत्तराधिकारी बने।
    • रायसिंह के अवगुणों के कारण सरदारों ने उसे अस्वीकार किया।
  2. सत्ता हस्तांतरण:
    • 1509 ई. में रायमल ने संग्राम सिंह को अजमेर से बुलाकर अपना उत्तराधिकारी घोषित किया।

रायमल के शासनकाल की उपलब्धियाँ

  1. कृषि प्रोत्साहन:
    • राम, शंकर और समयासंकट नामक तीन तालाबों का निर्माण।
  2. शिल्प और निर्माण:
    • प्रमुख शिल्पकार अर्जुन के निर्देशन में एकलिंग मंदिर का जीर्णोद्धार।
    • पत्नी श्रृंगारदेवी द्वारा घोसुंडी की बावड़ी का निर्माण।
  3. दरबारी विद्वान:
    • गोपाल भट्ट और महेश।





महाराणा सांगा (1509-1528 ई.)

प्रारंभिक जीवन और राज्याभिषेक

  • संग्रामसिंह का प्रसिद्ध नाम: महाराणा सांगा।
  • समकालीन शासक:
    • दिल्ली: सुल्तान सिकंदर लोदी।
    • गुजरात: महमूद बेगड़ा।
    • मालवा: नासिर शाह/नासिरुद्दीन खिलजी।


ठाकुर कर्मचंद का योगदान

  • शरणदाता:
    • महाराणा सांगा के कठिन समय में ठाकुर कर्मचंद ने शरण दी।
    • महाराणा रायमल ने पहले ठाकुर कर्मचंद को जागीर दी थी।
  • सम्मान और जागीर:
    • गद्दी पर बैठने के बाद महाराणा सांगा ने ठाकुर कर्मचंद को अजमेर, परबतसर, मांडल, फूलिया, बनेड़ा आदि की जागीरें दीं (कुल वार्षिक आय 15 लाख)।
    • 'रावत' की उपाधि प्रदान की।

सीमा सुरक्षा और सामरिक मित्रता

  • उत्तर-पूर्वी मेवाड़:
    • ठाकुर कर्मचंद की जागीर ने क्षेत्र को सुरक्षित बनाया।
  • दक्षिण और पश्चिमी मेवाड़:
    • सिरोही और वागड़ के शासकों से मित्रता।
    • ईडर के सिंहासन पर प्रशंसक रायमल को बिठाया।
  • दक्षिण-पूर्वी सीमा:
    • मेदनीराय को गागरोण और चंदेरी की जागीरें देकर सीमा की सुरक्षा।
  • मारवाड़:
    • वहां के शासक को भी सहयोगी बनाया।

रावत सारंगदेव का सम्मान

  • उपकार और सहयोग:
    • महाराणा सांगा के कुँवरपद के दौरान रावत सारंगदेव ने दो बार प्राण बचाए।
  • सारंगदेव के वंशज:
    • उनके पुत्र रावत जोगा को मेवल परगने के और गांव दिए।
    • आदेश दिया कि सारंगदेव के वंशज 'सारंगदेवोत' कहलाएंगे।

महाराणा सांगा की इन नीतियों और रणनीतियों ने मेवाड़ की सीमाओं को सुरक्षित किया और उनके साम्राज्य को स्थिरता प्रदान की।





महाराणा सांगा (1509-1528 ई.): मुख्य बिंदु


राजगद्दी पर आसीन

  1. राज्याभिषेक के समय की स्थिति:
    • दिल्ली: सुल्तान सिकंदर लोदी।
    • गुजरात: महमूद बेगड़ा।
    • मालवा: नासिर शाह/नासिरुद्दीन खिलजी।
  2. ठाकुर कर्मचंद का योगदान:
    • महाराणा सांगा के कठिन समय में ठाकुर कर्मचंद ने शरण दी।
    • सांगा ने उन्हें बड़ी जागीरें दीं (जैसे अजमेर, परबतसर, मांडल, फुलिया, बनेड़ा), जिनकी कुल वार्षिक आय ₹15 लाख थी।
    • ठाकुर कर्मचंद को "रावत" की उपाधि प्रदान की।

सीमाओं की सुरक्षा

  1. उत्तर-पूर्व मेवाड़: ठाकुर कर्मचंद को सशक्त सामंत के रूप में स्थापित किया।
  2. दक्षिण और पश्चिम मेवाड़: सिरोही और वागड़ के शासकों से मित्रता की।
  3. ईडर राज्य: अपने समर्थक रायमल को ईडर के सिंहासन पर बैठाया।
  4. दक्षिण-पूर्व मेवाड़: मेदनीराय को गागरोण और चंदेरी की जागीरें सौंपी।

रावत सारंगदेव का सम्मान

  • महाराणा सांगा के युवावस्था में रावत सारंगदेव ने दो बार उनके प्राण बचाए।
  • उनके उपकारों को याद करते हुए सांगा ने सारंगदेव के पुत्र रावत जोगा को बुलवाया।
  • मेवल परगने में कुछ और गांव देकर आदेश दिया कि उनके वंशज "सारंगदेवोत" कहलाएंगे।

धार्मिक कार्य

  • 1517 ई. में चित्तौड़गढ़ दुर्ग में शिलालेख खुदवाया।
  • कालिका माता मंदिर: जीर्णोद्धार करवाया।
  • जैन ग्रंथ ‘जयचंद्र चैत्य परिपाटी’ (1516 ई.): चित्तौड़गढ़ दुर्ग में 32 जैन मंदिरों का उल्लेख।

गुजरात-मेवाड़ संघर्ष

  1. संघर्ष का प्रारंभ:

    • महाराणा कुम्भा के समय से चला संघर्ष महाराणा सांगा के समय फिर शुरू हुआ।
    • ईडर का प्रश्न संघर्ष का तात्कालिक कारण था।
  2. ईडर का विवाद:

    • राव भाण राठौड़ के देहांत के बाद उनके पुत्र सूर्यमल गद्दी पर बैठे।
    • सूर्यमल के देहांत के बाद रायमल गद्दी पर बैठे।
    • रायमल के काका भीमसिंह ने गुजरात के सुल्तान मुजफ्फर की मदद से रायमल को हटाकर खुद गद्दी पर कब्जा कर लिया।
    • रायमल ने महाराणा सांगा की शरण ली।
  3. सांगा का हस्तक्षेप:

    • रायमल को समर्थन देकर अपनी पुत्री की सगाई उनसे करवाई।
    • रायमल को ईडर का सिंहासन दिलाने के लिए बड़ी सेना भेजी।
  4. गुजरात के सुल्तान की प्रतिक्रिया:

    • निजामुल्मुल्क ने रायमल को हराकर ईडर पर कब्जा किया।
    • सांगा ने निजामुल्मुल्क को हराकर रायमल को फिर से गद्दी दिलाई।
    • गुजरात के सुल्तान मुजफ्फर ने कई बार सेनाएं भेजीं, लेकिन असफल रहा।
    • 1520 ई. में सांगा ने स्वयं बड़ी सेना के साथ अहमदनगर को घेरा और विजय प्राप्त की।

महत्वपूर्ण विजय और समझौते

  1. सांगा की सेना ने बड़नगर को लूटकर चित्तौड़ लौटी।
  2. सांगा की विजय से गुजरात का सुल्तान लज्जित हुआ।
  3. मलिक अयाज ने पराजय की आशंका से सांगा से संधि कर ली।


राणा सांगा और मालवा का संबंध: मुख्य बिंदु

मालवा की स्थिति और मेदिनीराय का निष्कासन

  1. सुल्तान महमूद खिलजी द्वितीय:
    • मालवा के शासक।
    • शासन में कमजोरी और आंतरिक विद्रोह।
  2. मेदिनीराय का प्रभाव:
    • प्रबल राजपूत सरदार, जिनके नियंत्रण में सुल्तान था।
    • मुस्लिम अमीरों ने मेदिनीराय के प्रभाव का विरोध किया।
    • गुजरात के सुल्तान की सहायता से मेदिनीराय को मांड से निष्कासित कर दिया गया।

गागरोण का युद्ध (1519 ई.)

  1. युद्ध का कारण:

    • महाराणा सांगा ने मेदिनीराय की सहायता की।
    • मेदिनीराय को चंदेरी और गागरोण की जागीरें प्रदान की।
    • महमूद खिलजी ने इसे युद्ध का अवसर समझकर गागरोण पर आक्रमण किया।
  2. युद्ध और परिणाम:

    • महाराणा सांगा ने मेदिनीराय की सहायता के लिए गागरोण पहुंचकर महमूद खिलजी को पराजित किया।
    • महमूद खिलजी बंदी बना लिया गया।
    • सुल्तान का पुत्र आसफ खां युद्ध में मारा गया।

सुल्तान की कैद और सांगा की उदारता

  1. सुल्तान की चित्तौड़ ले जाया गया:

    • सुल्तान को तीन माह तक कैद में रखा।
  2. गुलदस्ते की घटना:

    • महाराणा सांगा ने सुल्तान को गुलदस्ता भेंट किया।
    • सुल्तान ने इसे अस्वीकार करते हुए कहा:
      • "देन का दो तरीका होता है: या तो ऊंचे से देना, या हाथ झुका कर बड़े को देना। मैं आपका कैदी हूं, इसलिए भीख मांगने के लिए हाथ नहीं बढ़ा सकता।"
    • इस उत्तर से सांगा प्रसन्न हुआ।
  3. सुल्तान को आधा मालवा राज्य सौंपा:

    • सांगा ने उदारता दिखाते हुए सुल्तान को मालवा का आधा राज्य लौटाया।
    • सुल्तान ने रत्नजड़ित मुकुट और सोने की कमर पेटी भेंट की।
    • छह महीने बाद सुल्तान को सम्मान सहित मुक्त कर दिया, जबकि उसके पुत्र को जमानत के रूप में रखा गया।



    • सांगा के उदार व्यवहार की प्रशंसा

  1. निज़ामुद्दीन अहमद (लेखक 'तबकाते-अकबरी'):
    • राणा सांगा के इस उदार और सम्मानजनक व्यवहार की सराहना की।
  2. सांगा की छवि:
    • एक धर्मनिष्ठ, न्यायप्रिय और उदार शासक के रूप में स्थापित।




दिल्ली सल्तनत और महाराणा सांगा: मुख्य बिंदु

दिल्ली सल्तनत से संबंध

  1. मेवाड़ का विस्तार:
    • सिकंदर लोदी के कमजोर शासन का फायदा उठाकर सांगा ने मेवाड़ के निकटवर्ती दिल्ली सल्तनत के क्षेत्रों को अपने राज्य में मिलाना शुरू किया।
  2. इब्राहीम लोदी का हस्तक्षेप:
    • 1517 ई. में इब्राहीम लोदी ने दिल्ली की सत्ता संभालते ही मेवाड़ पर हमला कर दिया।

खातोली का युद्ध (1517 ई.)

  1. स्थान:
    • खातोली (पीपल्दा तहसील, कोटा)।
  2. युद्ध के कारण:
    • महाराणा सांगा और इब्राहीम लोदी की महत्वाकांक्षाओं का टकराव।
  3. परिणाम:
    • महाराणा सांगा ने सुल्तान इब्राहीम लोदी को पराजित किया।
    • अमर काव्य वंशावली के अनुसार:
      • युद्ध में लोदी के एक शहजादे को बंदी बनाया गया।
      • कुछ दंड लेकर रिहा किया गया।
  4. महत्व:
    • इस युद्ध से महाराणा सांगा की ख्याति सिर्फ राजपूताना में नहीं, बल्कि पूरे उत्तरी भारत में फैल गई।

सांगा का प्रभाव और स्वप्न

  1. दिल्ली पर हिंदू सत्ता का स्वप्न:
    • दिल्ली सल्तनत, जो भारत की शक्ति का प्रतीक थी, पर विजय प्राप्त कर सांगा ने दिल्ली पर हिंदू राज्य स्थापित करने का सपना देखा।
  2. राजपूताना में प्रभाव:
    • यह जीत सांगा के नेतृत्व में राजपूतों की शक्ति का प्रतीक बनी और उसने सांगा की धाक को और मजबूत किया।

सारांश: खातोली के युद्ध में महाराणा सांगा ने न केवल इब्राहीम लोदी को हराया बल्कि अपनी रणनीतिक कुशलता और वीरता से उत्तरी भारत में राजपूत शक्ति को स्थापित करने की नींव रखी।



राणा सांगा और लोदी वंश: मुख्य बिंदु

बारी का युद्ध (1518 ई.)

  1. कारण:
    • इब्राहिम लोदी ने अपनी पहली पराजय का बदला लेने के लिए मियाँ हुसैन फरमूली और मियाँ माखन के नेतृत्व में सेना भेजी।
  2. फारसी तवारीखों के अनुसार:
    • मियाँ हुसैन ने राणा से मिलकर मियाँ माखन को हराया।
    • बाबर के अनुसार, धौलपुर की लड़ाई में राजपूत विजयी हुए।
  3. परिणाम:
    • बारी (धौलपुर) के पास राणा सांगा ने लोदी सेना को हराया।
    • लोदी सुल्तान की कमजोरी उजागर हुई।
    • उत्तर भारत का नेतृत्व सांगा के हाथ में आया।
    • विदेशी और देशी शक्तियों ने सांगा की शक्ति को स्वीकार किया।

राणा सांगा और मुगल सम्राट बाबर

बाबर का प्रस्ताव:

  1. बाबर ने काबुल से राणा को संदेश भेजा।
    • उसने इब्राहिम लोदी को हराने में मदद मांगी।
    • कहा कि विजय के बाद दिल्ली बाबर के पास और आगरा से आगे के क्षेत्र राणा के अधिकार में रहेंगे।
  2. सांगा की प्रतिक्रिया:
    • सिलहदी तंवर के माध्यम से प्रस्ताव स्वीकार किया।
    • सामंतों ने इस प्रस्ताव का विरोध किया।
    • सांगा ने उनकी सलाह मानकर बाबर को सहयोग नहीं दिया।

बयाना का युद्ध (16 फरवरी, 1527)

  1. पृष्ठभूमि:

    • बाबर ने दिल्ली और आगरा पर कब्जा कर लिया।
    • बयाना पर कब्जा करने के लिए दोस्त इश्कआका और फिर मेहंदी ख्वाजा को भेजा।
    • मेहंदी ख्वाजा ने बयाना जीत लिया।
  2. सांगा का संगठन:

    • सांगा ने कई राजपूत शासकों को संगठित किया:
      • मारवाड़: राव गांगा के पुत्र मालदेव।
      • चंदेरी: मेदिनीराय।
      • मेड़ता: रायमल राठौड़।
      • सिरोही: अखैराज दूदा।
      • डूंगरपुर: रावल उदयसिंह।
      • सलूम्बर: रावत रतनसिंह।
      • सादड़ी: झाला अज्जा।
      • गोगुन्दा: झाला सज्जा।
    • हसन खां मेवाती भी राणा से आ मिला।
  3. युद्ध:

    • बाबर ने दुर्ग में घिरे मुगल सैनिकों की मदद के लिए सुल्तान मिर्जा के नेतृत्व में सेना भेजी।
    • राणा सांगा ने राजपूत सेना के साथ बाबर की सेना को बुरी तरह हराया।
    • 16 फरवरी, 1527 को बयाना में भारी संघर्ष हुआ।
    • मुगलों की हार हुई, और राणा ने उनके भारी असले पर कब्जा कर लिया।
  4. परिणाम:

    • बयाना की विजय राणा सांगा की अंतिम बड़ी जीत थी।
    • यह युद्ध राणा की ताकत और रणनीति का प्रमाण था।

महत्व:

  • बयाना की जीत ने उत्तर भारत में राणा सांगा की शक्ति और प्रतिष्ठा को चरम पर पहुँचा दिया।
  • यह सांगा की अंतिम महान विजय मानी जाती है।





खानवा का युद्ध (17 मार्च, 1527)

युद्ध की घटनाएँ

  1. राणा सांगा की सेना:

    • राणा की सेना में 7 उच्च श्रेणी के राजा, 9 राव, और 104 सरदार शामिल थे।
    • प्रमुख सेनानायक:
      • महमूद लोदी (अफगान सुल्तान)
      • हसन खां मेवाती (मेव शासक)
      • मालदेव (राव गंगा का पुत्र, मारवाड़)
      • कु. कल्याणमल (राव जैतसी का पुत्र, बीकानेर)
      • पृथ्वीराज (आम्बेर का कच्छवाहा शासक)
      • रायमल राठौड़ (मेड़ता)
      • मेदिनीराय (चंदेरी)
      • अखैराज (सिरोही)
      • रावत रतनसिंह (सलूम्बर)
      • झाला अज्जा (गोगुन्दा)
  2. बाबर की रणनीति:

    • आगरा में पाँच दिन रुकने के बाद सीकरी की ओर बढ़ा।
    • सैनिकों में भय और आतंक का माहौल था।
    • ज्योतिषी मुहम्मद शरीफ ने "मंगल का तारा पश्चिम में है" कहकर सैनिकों को हतोत्साहित किया।
  3. बाबर की तैयारी:

    • 25 फरवरी, 1527 को शराब न पीने की प्रतिज्ञा की।
    • सोने-चाँदी की सुराहियाँ और प्याले तुड़वा कर गरीबों में बाँटे।
    • तमगा (धार्मिक कर) समाप्त करने की घोषणा की।
    • युद्ध को "जिहाद" घोषित किया।
    • सैनिकों का मनोबल बढ़ाने के लिए भाषण दिया।
  4. राजपूतों की रणनीति:

    • सांगा ने बयाना की विजय के बाद भुसावर होते हुए 13 मार्च, 1527 को खानवा पहुँचा।
    • रायसेन के सरदार सलहदी तंवर के माध्यम से सुलह की कोशिश की, लेकिन सरदारों ने इसे खारिज कर दिया।
  5. युद्ध का आरंभ:

    • 17 मार्च, 1527 को सुबह 9:30 बजे युद्ध शुरू हुआ।
    • राणा सांगा ने जोरदार हमला किया।
  6. सांगा की चोट:

    • राणा सांगा युद्ध में घायल हो गए।
    • सिरोही के अखैराज दूदा ने उन्हें युद्ध क्षेत्र से बाहर लाकर बसवा (दोसा) में ठहराया।
    • झाला अज्जा को राजचिह्न धारण कर रणक्षेत्र में हाथी पर बिठाया गया।
  7. युद्ध का परिणाम:

    • बाबर की सेना ने अंततः विजय प्राप्त की।
    • बाबर ने युद्ध के बाद हताहत शत्रुओं की खोपड़ियों से मीनार बनवाई।
    • बाबर ने "गाजित्व" (विजेता) की उपाधि प्राप्त की।
  8. सांगा का स्मारक:

    • राणा सांगा के स्मारक का निर्माण बसवा (दोसा) में किया गया।

महत्व:

  • खानवा का युद्ध बाबर और राणा सांगा के बीच निर्णायक संघर्ष था।
  • यह भारत में मुगलों की सत्ता स्थापित करने और राजपूत शक्ति के पतन का प्रतीक बना।


राणा सांगा की पराजय के कारण:
  1. बाबर के पास तोपखाना:
    बाबर के पास तोपखाना (artillery) था, जो उस समय की अन्य सेनाओं से बहुत प्रभावी था। यह राजपूत सेना के लिए एक नया और भयंकर हथियार था, जिससे वह मुकाबला नहीं कर सके।

  2. बाबर की तुलुगमा पद्धति एवं रणकौशल:
    बाबर की सेना की संरचना और युद्ध की रणनीति (tulughma system) बहुत प्रभावी थी। बाबर ने सशक्त सैनिकों के साथ संगठित रणनीति से युद्ध लड़ा, जो राजपूत सेना के लिए कठिनाईपूर्ण था।

  3. राजपूत सेना का एक नेता के अधीन न होना:
    राजपूत सेना के पास कोई एक केंद्रीय नेतृत्व नहीं था। कई छोटे-छोटे राजा और सरदार अपने-अपने तरीकों से लड़ रहे थे, जिससे एकजुटता की कमी थी।

  4. सलहदी तंवर और खानजादा का मिलना:
    युद्ध के अंतिम दौर में रायसीन के सलहदी तंवर और नागौर के खानजादा ने बाबर से मिलकर राजपूत सेना को कमजोर किया। इस धोखाधड़ी ने राजपूतों की स्थिति और कमजोर कर दी।

  5. सांगा की युद्ध रणनीति पर आलोचना:

    • एलफिंस्टन के अनुसार, अगर राणा सांगा मुसलमानों की पहली घबराहट पर ही आक्रमण करते, तो उनकी विजय सुनिश्चित थी।
    • डॉ. ओझा के अनुसार, सांगा ने बाबर को युद्ध की तैयारी करने का पूरा समय दिया। बयाना की पहली लड़ाई के बाद यदि सांगा तुरंत आक्रमण करते, तो वह विजयी होते।

खानवा युद्ध का महत्त्व:

  • राजपूतों से मुगलों में सत्ता का संक्रमण:
    खानवा युद्ध के परिणामस्वरूप राजपूतों की सत्ता समाप्त हो गई और मुगलों के हाथों में आ गई, जो अगले 200 वर्षों तक रही।

  • मध्य एशिया के साथ संबंध की पुनः स्थापना:
    इस युद्ध के बाद उत्तरी भारत का राजनीतिक संबंध फिर से मध्य एशियाई देशों से स्थापित हो गया, जिससे मुगलों की सत्ता को बल मिला।

  • युद्ध शैली का नया सामंजस्य:
    युद्ध शैली में एक नया सामंजस्य स्थापित हुआ, जिसमें तोपखाना, घेराबंदी और अन्य सामरिक उपायों का उपयोग प्रमुख था।


राणा सांगा के अन्तिम दिन:

  • युद्ध से घायल होना:
    युद्ध के दौरान राणा सांगा गंभीर रूप से घायल हो गए। उन्हें बसवा (दोसा) ले जाया गया, जहाँ उन्होंने होश में आते ही पुनः युद्ध में भाग लेने की कोशिश की।

  • सांगा की मृत्यु:
    राणा सांगा के साथियों ने यह महसूस किया कि यदि वह युद्ध में फिर से भाग लेते, तो मेवाड़ का सर्वनाश हो सकता है। इसलिए उन्होंने सांगा को विष दे दिया। परिणामस्वरूप, 30 जनवरी 1528 को राणा सांगा की मृत्यु हो गई। उनका शव कालपी से माण्डलगढ़ ले जाया गया, जहाँ उनका समाधि स्थल स्थित है।


राणा सांगा का योगदान और महत्व:

  • अंतिम हिन्दू सम्राट:
    राणा सांगा भारत के अंतिम हिन्दू सम्राट थे जिन्होंने विभिन्न राजपूत जातियों को एकजुट कर विदेशी आक्रांताओं के खिलाफ संघर्ष किया।

  • महत्वपूर्ण घाव और बलिदान:
    राणा ने युद्ध में एक हाथ, एक आँख और एक टाँग गंवायी। उनके शरीर पर 80 तलवार के घाव थे, जो उनके महान बलिदान को दर्शाते हैं।

  • सांगा की सामरिक महत्ता:
    राणा सांगा की सेना में 1 लाख सवार थे और उनका राज्य 10 करोड़ की आमदनी का था। उनके पास 7 राजा, 9 राव और 104 छोटे सरदार थे। यदि उनके उत्तराधिकारी भी उतने वीर होते, तो मुगलों का राज्य भारत में स्थापित नहीं हो पाता।

  • कर्नल टॉड का दृष्टिकोण:
    कर्नल टॉड ने राणा सांगा को 'सिपाही का अंश' कहा था। उनका योगदान भारत के इतिहास में अमर रहेगा।


सांगा की मृत्यु के बाद की स्थिति:

  • मेवाड़ का पतन:
    सांगा की मृत्यु के बाद मेवाड़ की राजनीतिक स्थिति बहुत कमजोर हो गई। इसके बाद 10 वर्षों में मेवाड़ के तीन शासक बने - रतन सिंह, विक्रमादित्य और बनवीर।

  • आंतरिक संघर्ष:
    राणा रतन सिंह और सूरजमल हाडा के बीच के झगड़े के कारण मेवाड़ की स्थिति और कमजोर हो गई, और दोनों आपस में मारे गए।

इस प्रकार, राणा सांगा का जीवन और संघर्ष भारतीय इतिहास में एक महत्वपूर्ण अध्याय है, और उनका योगदान भारतीय स्वतंत्रता की ओर उनकी प्रतिबद्धता को दर्शाता है।




विक्रमादित्य (1531-1536 ई.) और मेवाड़ का पतन:

विक्रमादित्य का शासन और संरक्षिका कर्मावती:

  • राणा सांगा की मृत्यु के बाद उनके दो अल्प आयु पुत्र, विक्रमादित्य और उदयसिंह, मेवाड़ के उत्तराधिकारी बने।
  • विक्रमादित्य के नाबालिग होने के कारण उनकी माँ रानी कर्मावती (कर्णावती) ने शासन की बागडोर संभाली।

गुजरात के बहादुरशाह का आक्रमण (1535 ई.):

  1. चित्तौड़ पर आक्रमण:

    • गुजरात के शासक बहादुरशाह ने 1535 ई. में चित्तौड़ पर हमला किया।
    • विक्रमादित्य ने किले की रक्षा का भार देवलिया (प्रतापगढ़) के ठाकुर बाघसिंह को सौंप दिया और स्वयं बूँदी चला गया।
  2. रानी कर्मावती की राखी और हुमायूँ का उत्तर:

    • रानी कर्मावती ने मुगल सम्राट हुमायूँ को सहायता के लिए राखी भेजी।
    • हुमायूँ ने राखी का सम्मान किया, लेकिन समय पर चित्तौड़ नहीं पहुंच सका।
  3. चित्तौड़ का दूसरा साका:

    • बहादुरशाह के किले पर अधिकार का आभास होने पर रानी कर्मावती ने जौहर किया।
    • अन्य राजपूत स्त्रियों के साथ विक्रमादित्य की पत्नी जवाहर बाई ने भी जौहर किया।
    • राजपूत योद्धाओं ने अंतिम सांस तक युद्ध किया।
  4. बहादुरशाह का किले पर अधिकार:

    • मार्च 1535 ई. में चित्तौड़ का किला बहादुरशाह के अधीन हो गया।
    • हुमायूँ के चित्तौड़ आने की खबर सुनकर बहादुरशाह ने किला छोड़ दिया।

विक्रमादित्य का पुनः शासन:

  • बहादुरशाह के किला छोड़ने के बाद विक्रमादित्य ने चित्तौड़ पर फिर से अधिकार कर लिया।
  • 1536 ई. में विक्रमादित्य ने चित्तौड़ का शासन संभाला, लेकिन उसकी शक्तिहीनता और कायरता उजागर हो गई।

विक्रमादित्य की हत्या और बनवीर का शासन:

  • विक्रमादित्य की अक्षमता और कमजोरी ने मेवाड़ की राजनीतिक स्थिति को कमजोर कर दिया।
  • 1536 ई. में बनवीर ने विक्रमादित्य की हत्या कर चित्तौड़ की गद्दी पर कब्जा कर लिया।
  • यह घटना मेवाड़ के गौरवशाली इतिहास में "नपुंसकता की पराकाष्ठा" मानी जाती है।

कर्नल टॉड का मत:

  • कर्नल टॉड विक्रमादित्य के सबसे बड़े आलोचक थे।
  • उन्होंने विक्रमादित्य के शासन को मेवाड़ के इतिहास पर एक काला धब्बा बताया।
  • टॉड के अनुसार, "यह अच्छा होता यदि विक्रमादित्य मेवाड़ के राणा कुल में पैदा न हुआ होता।"

चित्तौड़ का दूसरा साका:

चित्तौड़ के दूसरे साके ने राजपूतों की वीरता और बलिदान को उजागर किया, लेकिन यह भी दिखाया कि कमजोर नेतृत्व के कारण मेवाड़ की स्थिति दिन-प्रतिदिन गिरती गई।

सार:
विक्रमादित्य का शासन राणा सांगा के गौरवशाली युग के बाद मेवाड़ के पतन का प्रतीक था। उसकी अक्षमता और कायरता ने मेवाड़ की राजनीतिक स्थिति को न केवल कमजोर किया, बल्कि राजपूत शक्ति के इतिहास में इसे एक अंधकारमय अध्याय बना दिया !




बनवीर (1536-1540 ई.):

  • सत्ता पर कब्जा:
    विक्रमादित्य की हत्या के बाद, राणा रायमल के पुत्र पृथ्वीराज का अनौरस पुत्र बनवीर चित्तौड़ का शासक बन बैठा।

  • उदयसिंह की हत्या का प्रयास:
    बनवीर ने उदयसिंह (राणा सांगा के पुत्र) को भी मारने का प्रयास किया।

    • उदयसिंह की धाय मां पन्ना ने स्वामीभक्ति का अद्वितीय उदाहरण प्रस्तुत किया।
    • उसने अपने पुत्र चंदन का बलिदान देकर उदयसिंह को बचाया।
    • पन्ना धाय ने कुछ वफादार सरदारों के सहयोग से उदयसिंह को कुम्भलगढ़ पहुंचाया।
  • कुम्भलगढ़ में शरण:
    कुम्भलगढ़ के किलेदार आशा देवपुरा ने उदयसिंह को शरण दी और उनकी सुरक्षा सुनिश्चित की।


उदयसिंह (1540-1572 ई.):



  • स्वाभिमानी सरदारों का समर्थन:

    • बनवीर के क्रूर शासन से घृणा करते हुए, स्वाभिमानी मेवाड़ी सरदार एक-एक कर कुम्भलगढ़ पहुंचे।
    • उन्होंने उदयसिंह के नेतृत्व में शक्ति का संगठन करना आरंभ किया।
    • कोठारिया, केलवा, बागोर आदि ठिकानों के जागीरदारों ने उनका साथ दिया।
  • उदयसिंह का विवाह:

    • उदयसिंह का विवाह सोनगरे अखेराज चौहान की पुत्री जयवंता बाई से हुआ।
    • इस विवाह के बाद, उदयसिंह के समर्थकों की संख्या और शक्ति बढ़ गई।
  • बनवीर पर आक्रमण:

    • समर्थकों के संगठित होने के बाद, उदयसिंह ने अवसर पाकर 1540 ई. में बनवीर पर आक्रमण किया।
    • इस युद्ध में उदयसिंह ने बनवीर की हत्या कर दी और चित्तौड़ का किला पुनः प्राप्त कर लिया।

महत्त्व:

  • पन्ना धाय का त्याग:
    पन्ना धाय की स्वामीभक्ति और बलिदान भारतीय इतिहास में एक अद्वितीय आदर्श के रूप में दर्ज है।
  • चित्तौड़ की पुनर्प्राप्ति:
    उदयसिंह के नेतृत्व में चित्तौड़ का गौरव और स्वतंत्रता वापस आई।
  • मेवाड़ का पुनरुत्थान:
    उदयसिंह का शासन मेवाड़ के पुनरुत्थान और शक्ति के संगठित होने की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम था।

इस प्रकार, बनवीर का शासन मेवाड़ के इतिहास में एक अल्पकालिक और अराजक अध्याय था, जबकि उदयसिंह के नेतृत्व में मेवाड़ ने अपनी खोई हुई गरिमा को पुनः प्राप्त किया।



मेवाड़-मारवाड़ के बीच टकराव

  • जैत्रसिंह और मालदेव राठौड़:

    • मेवाड़ के जैत्रसिंह मेवाड़ छोड़कर मारवाड़ चले गए।
    • राव मालदेव राठौड़ ने उन्हें खैरवा का जागीरदार बना दिया।
    • इस प्रसन्नता के प्रतीक स्वरूप जैत्रसिंह ने अपनी बड़ी पुत्री स्वरूपदे का विवाह मालदेव से कर दिया।
  • मालदेव की मांग:

    • खैरवा जाने पर मालदेव ने जैत्रसिंह की छोटी पुत्री वीरबाई झाली को भी विवाह में मांगा।
    • जैत्रसिंह ने इसे अपना अपमान समझा और अपनी छोटी पुत्री का विवाह मेवाड़ के शासक उदयसिंह से कर दिया।
    • इस घटना से क्रोधित होकर मालदेव ने कुंभलगढ़ पर आक्रमण किया, लेकिन एक महीने के घेरे के बावजूद किले पर अधिकार नहीं कर सका।

अकबर और उदयसिंह:

  • मुगल-मेवाड़ संबंध:

    • बदायूँनी और अबुल फजल के अनुसार, महाराणा उदयसिंह केवल अपनी स्वतंत्रता बनाए रखने में ही नहीं, बल्कि अन्य शासकों को प्रेरित करने में भी अग्रणी थे।
    • बूँदी, सिरोही, डूंगरपुर आदि राज्य उनके सहयोगी थे।
    • मालवा के बाजबहादुर और मेड़ता के जयमल ने चित्तौड़ में शरण ली थी।
    • यह सब मुगल सत्ता के लिए चुनौती बन गया।
  • मुगल-मेवाड़ युद्ध का कारण:

    • अकबर ने धौलपुर में राणा के पुत्र शक्तिसिंह के सामने कहा कि बड़े-बड़े जमींदार उसकी अधीनता स्वीकार कर चुके हैं, लेकिन राणा उदयसिंह नहीं।
    • शक्तिसिंह ने यह बात उदयसिंह को बता दी, जिससे राणा को आगामी आक्रमण की सूचना मिली।
  • चित्तौड़ की सुरक्षा व्यवस्था:

    • जयमल मेडतिया और फत्ता सिसोदिया को चित्तौड़ की सुरक्षा का दायित्व दिया गया।
    • उदयसिंह ने गिरवा और उदयपुर क्षेत्र की सुरक्षा की जिम्मेदारी ली।
    • वीरविनोद के अनुसार, चित्तौड़ छोड़कर जाने के कारण उदयसिंह की आलोचना हुई।
    • लेकिन डॉ. गोपीनाथ शर्मा ने उदयसिंह को कायर मानने से इनकार किया क्योंकि उन्होंने बनवीर, मालदेव, और हाजी खान पठान के खिलाफ साहसिक युद्ध लड़े थे।

चित्तौड़ के घेरे और पतन की घटनाएँ:

  • अकबर का आगमन:

    • अकबर 23 अक्टूबर, 1567 को चित्तौड़ पहुंचा।
    • उसने काबरा, नगरी, और पांडोली में अपने शिविर लगाए।
    • तोपखाना सूरजपोल के सामने स्थापित किया गया।
  • युद्ध की घटनाएँ:

    • अकबर ने तीन स्थानों पर सुरंगे लगाने का आदेश दिया।
    • दो सुरंगों में भारी मात्रा में बारूद भरकर बुर्जों को उड़ा दिया गया।
    • इस युद्ध में जयमल मेडतिया और कल्ला राठौड़ वीरगति को प्राप्त हुए।
    • राजपूत स्त्रियों ने जौहर किया, और यह चित्तौड़ का तृतीय साका कहलाया।
  • अकबर की विजय:

    • 25 फरवरी, 1568 को अकबर ने चित्तौड़ किले पर अधिकार कर लिया।
    • अकबर ने जयमल और फत्ता की वीरता से प्रभावित होकर उनकी मूर्तियाँ आगरा किले में स्थापित करवाईं।
    • लेकिन चित्तौड़ में किए गए भीषण नरसंहार के लिए अकबर का नाम इतिहास में कलंकित है।

उदयसिंह का अंतिम समय:

  • चित्तौड़ के पतन के बाद उदयसिंह ने अधिक समय तक शासन नहीं किया।
  • 28 फरवरी, 1572 को गोगुंदा में उनका निधन हुआ।
  • गोगुंदा में उनकी छतरी आज भी उनके स्मरण का प्रतीक है।

महत्त्व:

  • चित्तौड़ के पतन ने मेवाड़ के राजनीतिक और सैन्य संतुलन को कमजोर किया।
  • उदयसिंह के नेतृत्व में मेवाड़ की स्वतंत्रता बनी रही, लेकिन चित्तौड़ के पतन ने अकबर की शक्ति को बढ़ावा दिया।
  • यह घटना राजपूतों के बलिदान और अदम्य साहस का प्रतीक है।



राणा प्रताप (1572-1597 ई.)

जन्म और पारिवारिक पृष्ठभूमि:

  • जन्म: 9 मई, 1540 ई. (ज्येष्ठ शुक्ल 3, विक्रम संवत 1597) रविवार को कुम्भलगढ़ के प्रसिद्ध 'बादल महल' में हुआ।
  • पिता: महाराणा उदयसिंह।
  • माता: जैवन्ता बाई (पाली के अखैराज सोनगरा की पुत्री)।
  • बचपन में उन्हें स्थानीय भाषा में 'कीका' कहा जाता था, जिसका अर्थ 'छोटे बच्चे' से है।
  • 17 वर्ष की आयु में उनका विवाह रामरख पंवार की पुत्री अजबदे से हुआ, जिससे उनके पुत्र कुंवर अमरसिंह का जन्म हुआ।

सिंहासन का संघर्ष:

  • राणा उदयसिंह ने अपनी पत्नी भटियाणी रानी धीर बाई के पुत्र जगमाल को युवराज घोषित किया था।
  • उदयसिंह की मृत्यु के बाद, धीर बाई के आग्रह पर कुछ सरदारों ने जगमाल का राजतिलक कर दिया।
  • ग्वालियर के रामशाह तंवर और जालौर के सोनगरा अखैराज चौहान ने इस निर्णय का विरोध किया और कहा कि ज्येष्ठ पुत्र राणा प्रताप ही सिंहासन के अधिकारी हैं।
  • रावत कृष्णदास और अन्य सरदारों ने जगमाल को सिंहासन से हटाकर राणा प्रताप को गोगुंदा में सिंहासन पर बैठाया।
  • राज्याभिषेक: 28 फरवरी, 1572 को 32 वर्ष की आयु में गोगुंदा में महादेव बावड़ी के पास राणा प्रताप का राज्याभिषेक हुआ।

जगमाल और अकबर का संबंध:

  • सिंहासन से हटाए जाने के बाद जगमाल अकबर के पास चला गया।
  • अकबर ने उसे जहाजपुर और सिरोही की आधी जागीर दे दी।
  • 1583 ई. में सिरोही में दताणी के युद्ध में जगमाल की मृत्यु हो गई।

राणा प्रताप और अकबर का संघर्ष:

  • राणा प्रताप के समय मुगलों का प्रभाव तेजी से बढ़ रहा था।
  • राणा प्रताप ने मेवाड़ की स्वतंत्रता बनाए रखने के लिए जीवनभर संघर्ष किया।
  • उन्होंने भीलों को संगठित कर उनके नेता पूंजा भील के नेतृत्व में सैन्य व्यवस्था में शामिल किया।
  • यह पहली बार था जब भीलों को सैन्य-व्यवस्था में उच्च पद देकर सम्मानित किया गया।

राजनीतिक रणनीति:

  • राणा प्रताप ने मुगलों से दूर रहकर युद्ध की रणनीति बनाने के लिए गोगुंदा से कुम्भलगढ़ को अपनी राजधानी बनाया।
  • वह जंगलों, घाटियों और पहाड़ों में रहकर संघर्ष करते रहे।

महत्त्व और शासनकाल:

  • राणा प्रताप ने 25 वर्षों (1572-1597 ई.) तक मेवाड़ पर शासन किया।
  • उनका शासन स्वतंत्रता, आत्मगौरव और संघर्ष का प्रतीक था।
  • राणा प्रताप ने अकबर की अधीनता स्वीकार करने से इनकार किया और जीवनभर मेवाड़ की स्वतंत्रता के लिए संघर्ष किया।
  • उनके नेतृत्व और साहस ने उन्हें भारतीय इतिहास में एक अमर नायक बना दिया।

मूल सिद्धांत:

  • राणा प्रताप का जीवन आदर्श था, जो स्वतंत्रता और स्वाभिमान की भावना का प्रतीक है।
  • उन्होंने दिखाया कि स्वतंत्रता के लिए समर्पित जीवन कितना मूल्यवान हो सकता है।





अकबर द्वारा राणा प्रताप के पास भेजे गए चार शिष्ट मंडल

1. जलाल खाँ कोरची का शिष्टमंडल:

  • गुजरात विजय के बाद अकबर ने जलाल खाँ कोरची को राणा प्रताप के पास भेजा।
  • उद्देश्य: राणा को अकबर की अधीनता स्वीकार करने के लिए समझाना।
  • परिणाम: राणा प्रताप ने इस प्रस्ताव को शिष्टता के साथ अस्वीकार कर दिया।

2. मानसिंह का शिष्टमंडल:

  • मानसिंह को गुजरात से लौटते समय आदेश दिया गया कि वह उदयपुर जाकर राणा प्रताप को समझाए।
  • शिष्टमंडल में प्रमुख सदस्य:
    • मानसिंह, शाहकुली खाँ, जगन्नाथ, राजा गोपाल, बहादुर खाँ, लश्कर खाँ, जलाल खाँ, भोज आदि।
  • वार्ता का स्थान:
    • अधिकांश इतिहासकारों के अनुसार, यह वार्ता उदयपुर में हुई।
    • 'अमरकाव्यम्' में उल्लेख है कि यह भेंट उदयसागर की पाल पर हुई।
  • घटना का विवरण:
    • प्रताप ने मानसिंह और उनकी सेना को भोजन के लिए आमंत्रित किया।
    • प्रताप ने स्वयं भोजन में भाग नहीं लिया।
    • जब मानसिंह ने प्रताप की अनुपस्थिति का कारण पूछा, तो बताया गया कि राणा प्रताप अपने को उच्च कुल का क्षत्रिय मानते हैं और यवनों से संबंध के कारण उनके साथ भोजन नहीं कर सकते।
    • मानसिंह ने यह सुनकर क्रोधित होकर अकबर को राणा प्रताप के विरुद्ध भड़काया।
    • मानसिंह ने राणा प्रताप को चुनौती भरा पत्र भेजा।

3. भगवंतदास का शिष्टमंडल:

  • अकबर ने भगवंतदास के नेतृत्व में एक और शिष्टमंडल राणा प्रताप के पास भेजा।
  • उद्देश्य: राणा को समझाना और अकबर की सर्वोच्चता स्वीकारने के लिए प्रेरित करना।
  • परिणाम: यह प्रयास भी विफल रहा।

4. टोडरमल का शिष्टमंडल:

  • तीसरी बार अकबर ने टोडरमल के नेतृत्व में शिष्टमंडल भेजा।
  • उद्देश्य: राणा को शांतिपूर्ण ढंग से अधीनता स्वीकारने के लिए राजी करना।
  • परिणाम: राणा प्रताप ने इसे भी अस्वीकार कर दिया।

हल्दीघाटी का युद्ध (18 जून, 1576)

नामकरण:

  • कर्नल टॉड: इसे मेवाड़ की थर्मोपल्ली कहा।
  • अबुल फजल: इसे खमनौर का युद्ध कहा।
  • बदायूंनी: इसे गोगुंदा का युद्ध कहा।

युद्ध के कारण:

  • राणा प्रताप द्वारा अकबर की अधीनता न स्वीकारना।
  • मानसिंह और अन्य शिष्टमंडलों की विफलता।
  • मानसिंह द्वारा प्रताप को युद्ध के लिए चुनौती।

राणा प्रताप की रणनीति:

  1. स्वभूमिध्वंस की नीति (Scorched Earth Policy):
    • प्रताप ने मेवाड़ के उपजाऊ क्षेत्रों को खाली करवाया और उन्हें नष्ट कर दिया।
    • उद्देश्य: मुगल सेना को रसद और अन्य संसाधन न मिलने देना।
  2. भीलों की सहायता:
    • पूंजा भील के नेतृत्व में भीलों को सुरक्षा और गुप्तचर व्यवस्था में लगाया।
  3. किलों का उपयोग:
    • जनता को कुम्भलगढ़ और कलवाड़ा के पहाड़ी क्षेत्रों में स्थानांतरित किया।
    • गिरवा क्षेत्र में यातायात के साधन, खाद्य सामग्री, और घास नष्ट कर दी।

युद्ध का विवरण:

  • युद्धस्थल: हल्दीघाटी, राजसमंद।
  • राणा प्रताप और उनके सेनापति भामाशाह, झाला मान और भील सहयोगियों ने वीरता से मुगल सेना का सामना किया।
  • प्रताप ने अपने घोड़े चेतक के अद्वितीय साहस के बल पर युद्धभूमि में अपने जीवन की रक्षा की।

परिणाम:

  • यह युद्ध निर्णायक नहीं था।
  • मुगलों को हल्दीघाटी में विजय मिली, लेकिन वे मेवाड़ को पूरी तरह अधीन नहीं कर सके।
  • राणा प्रताप ने संघर्ष जारी रखा और अपना प्रभाव बरकरार रखा।


हल्दीघाटी युद्ध का वर्णन

रणनीतिक स्थिति:

  • रामशाह तंवर जैसे अनुभवी सामंतों ने सुझाव दिया था कि शत्रु से खुले मैदान में युद्ध न किया जाए।
  • युद्ध के दौरान दोनों सेनाओं में राजपूत योद्धाओं की संख्या इतनी अधिक थी कि यह पहचानना कठिन हो गया कि कौन अपने पक्ष का है और कौन शत्रु का।

बदायूंनी और आसफ खाँ का संवाद:

  • बदायूंनी ने आसफ खाँ से पूछा, "हम अपने और शत्रु के राजपूतों की पहचान कैसे करें?"
  • आसफ खाँ का उत्तर था:
    • "तुम वार करते जाओ, चाहे जिस पक्ष का राजपूत मारा जाए, इससे इस्लाम को हर हाल में लाभ होगा।"
    • इस उत्तर से मुगलों की मानसिकता और रणनीतिक सोच का संकेत मिलता है।

युद्ध में हाथियों का योगदान:

  • राणा प्रताप के हाथी:

    • लूना और रामप्रसाद:
      • कवचधारी हाथी, सूँड में जहरीले खंजर और पूंछ में धारदार तलवारें बांधे हुए।
      • दुश्मन सेना को चीरते हुए आगे बढ़ रहे थे।
    • खांडराव और चक्रवाप भी सेना में शामिल थे।
  • मुगलों के हाथी:

    • गज-मुक्ता: लूना के विरुद्ध उतारा गया।
    • गजराज और रन-मदार: रामप्रसाद के खिलाफ तैनात।
    • हाथियों में भीषण और खूनी संघर्ष हुआ।
  • महावतों पर हमले:

    • लूना और रामप्रसाद के महावतों को गोली मार दी गई।
    • रामप्रसाद पर एक मुगल महावत ने नियंत्रण पा लिया।

राणा प्रताप और मानसिंह का आमना-सामना:

  • मानसिंह का हाथी:
    • "मर्दाना," जिसके हौदे में मानसिंह बैठा था।
  • राणा प्रताप ने अपने घोड़े चेतक के साथ मानसिंह के हाथी पर हमला किया।
    • चेतक ने अपने अगले पैर मानसिंह के हाथी पर रख दिए।
    • राणा ने भाले से वार किया, जो महावत के शरीर को चीरता हुआ हौदे को पार कर गया।
    • मानसिंह ने हौदे में छुपकर अपनी जान बचाई।

चेतक का साहस:

  • मानसिंह का हाथी, जो महावत विहीन हो चुका था, ने अपने खंजर से चेतक का एक पैर काट दिया।
  • चेतक ने घायल अवस्था में भी राणा प्रताप को युद्धभूमि से सुरक्षित स्थान तक पहुंचाया।
  • चेतक की वीरता और बलिदान इस युद्ध का एक अमर प्रसंग बन गया।

युद्ध का परिणाम और प्रभाव:

  • हल्दीघाटी का युद्ध निर्णायक नहीं था, लेकिन राणा प्रताप की वीरता और रणनीति ने मुगलों को मेवाड़ पर पूर्ण नियंत्रण नहीं करने दिया।
  • राणा प्रताप ने युद्ध में अपने पराक्रम और देशभक्ति का परिचय दिया, जो इतिहास में अमर है !

हल्दीघाटी युद्ध का संपूर्ण वर्णन

युद्ध के मुख्य प्रसंग और घटनाएँ:

राणा प्रताप के हाथियों का पराक्रम:
  • लूना और रामप्रसाद:

    • कवचधारी और अपनी सूंड में जहरीले खंजर तथा पूंछ में तलवारें लिए हुए।
    • लूना ने केंद्र की ओर बढ़ते हुए दुश्मन सेना को चीरते हुए आगे बढ़ने की कोशिश की।
    • मुगलों ने गज-मुक्ता (गजमुख) को लूना के खिलाफ उतारा।
    • लूना के महावत को गोली मार दी गई।
  • रामप्रसाद का संघर्ष:

    • रामप्रसाद दाहिने हरावल की ओर तेजी से बढ़ा।
    • मुगलों ने गजराज और रन-मदार हाथियों को रामप्रसाद के सामने खड़ा किया।
    • खूनी संघर्ष में रामप्रसाद के महावत को भी गोली मार दी गई।
    • एक मुगल महावत ने रामप्रसाद की पीठ पर चढ़कर उसे नियंत्रित कर लिया।

राणा प्रताप और मानसिंह का सामना:
  • मानसिंह का हाथी: "मर्दाना"।

    • राणा प्रताप अपने घोड़े चेतक के साथ मानसिंह के हाथी के पास पहुँचे।
    • चेतक ने अपने अगले पैर मानसिंह के हाथी पर रख दिए।
    • राणा ने भाले से वार किया, जो महावत के शरीर को पार कर हौदे तक पहुँच गया।
    • मानसिंह ने हौदे में छुपकर अपनी जान बचाई।
  • चेतक का बलिदान:

    • मानसिंह के हाथी ने अपने खंजर से चेतक का एक पैर काट दिया।
    • चेतक ने घायल अवस्था में भी राणा को सुरक्षित स्थान तक पहुँचाया।
    • बलीचा नामक स्थान पर चेतक ने अंतिम साँस ली।
    • राणा ने चेतक का अंतिम संस्कार कर उसे श्रद्धांजलि अर्पित की।

राणा की रक्षा और झाला बीदा का बलिदान:
  • सादड़ी के झाला बीदा ने राणा के सिर से छत्र खींचकर स्वयं धारण कर लिया।
  • वह मानसिंह के सैनिकों पर झपट पड़ा और लड़ते हुए वीरगति को प्राप्त हुआ।
  • इस बलिदान ने राणा को युद्धक्षेत्र से सुरक्षित हटने का अवसर दिया।

युद्ध का परिणाम और प्रभाव:

मुगलों की कठिनाईयाँ:
  • भय और थकावट:
    • मुगल सेना भीषण गर्मी और थकावट से जूझ रही थी।
    • बदायूंनी ने लिखा कि गर्मी इतनी अधिक थी कि सैनिकों का दिमाग पिघलने जैसा महसूस हो रहा था।
  • रसद मार्ग अवरुद्ध:
    • राणा ने मुगलों के रसद मार्ग काट दिए।
    • मुगल सैनिक भोजन की कमी से जूझते हुए अपने जानवरों को मारकर पेट भरने पर विवश हो गए।
  • भीलों का हमला:
    • भील नेता पूंजा ने मुगल शिविरों पर हमला कर खाद्य सामग्री लूट ली।
युद्ध का समापन:
  • मुगल सेना गोगुंदा के लिए लौट गई।
  • प्रताप ने गोगुंदा को पुनः अपने अधीन कर लिया।
  • बदायूंनी ने बादशाह को हाथी रामप्रसाद (बाद में नाम बदलकर पीरप्रसाद कर दिया गया) और युद्ध की रिपोर्ट भेजी।
  • अकबर ने युद्ध के परिणाम से खिन्न होकर मानसिंह और आसफ खाँ को दरबार में सम्मिलित होने से वंचित कर दिया।

रणनीतिक दृष्टिकोण:

  • हल्दीघाटी का युद्ध भले ही निर्णायक न रहा हो, लेकिन यह स्पष्ट हुआ कि अकबर की सेना राणा प्रताप के साहस, रणनीति, और मेवाड़ की विषम भौगोलिक परिस्थितियों के सामने टिक नहीं सकी।
  • राणा प्रताप की स्वभूमिध्वंस की नीति और भील सेना के योगदान ने मुगलों को पराजय के कगार पर ला खड़ा किया।
  • यह युद्ध मेवाड़ की स्वतंत्रता के लिए संघर्ष का प्रतीक बन गया और राणा प्रताप की अमिट वीरता को इतिहास में अमर कर गया !




हल्दीघाटी युद्ध में महाराणा प्रताप की विजय के तर्क

  1. जमीन के पट्टे जारी करना (ताम्रपत्र):

    • इतिहासकार डॉ. चंद्रशेखर शर्मा के अनुसार, हल्दीघाटी युद्ध के बाद महाराणा प्रताप ने आसपास के गांवों की जमीनों के पट्टे जारी किए।
    • यह केवल उस शासक द्वारा किया जा सकता था, जिसका उस क्षेत्र पर अधिकार हो।
    • यह प्रमाणित करता है कि हल्दीघाटी और आसपास के इलाके पर महाराणा प्रताप का नियंत्रण बना रहा।
  2. अकबर की असफलता:

    • हल्दीघाटी युद्ध के बाद अकबर ने 13 अक्टूबर, 1576 को स्वयं गोगुंदा की यात्रा की।
    • वह प्रताप को बंदी बनाने में असफल रहा और खाली हाथ लौटना पड़ा।
    • यह घटना राणा प्रताप के रणनीतिक कौशल और मुगलों के असफल अभियानों को दर्शाती है।
  3. मुगलों का लौटना और गोगुंदा पर प्रताप का अधिकार:

    • हल्दीघाटी युद्ध के तुरंत बाद, राणा प्रताप ने गोगुंदा पर पुनः अधिकार कर लिया।
    • मुगल प्रशासक मुजाहिद बेग की हत्या और क्षेत्र पर महाराणा का कब्जा उनके पराक्रम को प्रमाणित करता है।

जेम्स टॉड की तुलना: हल्दीघाटी और थर्मोपल्ली

  • थर्मोपल्ली युद्ध (480 ई.पू.):

    • फारस और यूनान के बीच लड़ा गया। यूनानी सेनानायक लियोनिडास और उनके 300 सैनिकों ने फारसी सेना का डटकर मुकाबला किया।
    • लियोनिडास ने अपने प्राणों की आहुति देकर अपनी मातृभूमि के प्रति अद्वितीय साहस का परिचय दिया।
  • हल्दीघाटी युद्ध (1576 ई.):

    • जेम्स टॉड ने हल्दीघाटी को मेवाड़ की थर्मोपल्ली और राणा प्रताप व उनके सैनिकों को लियोनिडास की तरह वीर बताया।
    • हल्दीघाटी युद्ध भारतीय इतिहास में उसी प्रकार साहस और बलिदान का प्रतीक है, जैसा कि थर्मोपल्ली युद्ध यूनान के लिए है।

अकबर के प्रयास और विफलताएँ:

  1. शाहबाज खाँ का नेतृत्व:

    • अकबर ने अक्टूबर 1577 में शाहबाज खाँ को राणा प्रताप के विरुद्ध भेजा।
    • शाहबाज खाँ ने 1578 में कुम्भलगढ़ पर आक्रमण किया और किले पर अस्थायी रूप से अधिकार कर लिया।
    • लेकिन प्रताप के संघर्ष और कुशल रणनीति के कारण शाहबाज खाँ को मई 1580 में मेवाड़ छोड़ना पड़ा।
  2. कुम्भलगढ़ युद्ध:

    • कुम्भलगढ़ पर मुगलों का अस्थायी कब्जा भी लंबे समय तक टिक नहीं सका।
    • प्रताप ने पहाड़ियों से अपनी गुरिल्ला रणनीति अपनाते हुए मेवाड़ के बड़े हिस्से पर पुनः अधिकार कर लिया।

महाराणा प्रताप की रणनीति और संघर्ष की गाथा

  • गुरिल्ला युद्ध:

    • प्रताप ने हल्दीघाटी युद्ध के बाद पहाड़ी क्षेत्रों में अपने ठिकाने बनाए।
    • दुश्मन की रसद काटना, अचानक हमले करना और क्षेत्रीय समर्थन से मुगलों को थका देना उनकी रणनीति का हिस्सा था।
  • भीलों का समर्थन:

    • हल्दीघाटी युद्ध में भीलों का बड़ा योगदान था। उन्होंने मुगलों के शिविरों पर हमला कर खाद्य सामग्री लूटी।
  • मेवाड़ की स्वतंत्रता का प्रतीक:

    • हल्दीघाटी युद्ध और उसके बाद राणा प्रताप का संघर्ष भारतीय स्वाधीनता संग्राम की प्रेरणा बन गया।


अब्दुल रहीम खानखाना का अभियान (1580) और महाराणा प्रताप की उदारता

  1. मुगल अभियान की असफलता:
    • अकबर ने अब्दुल रहीम खानखाना को मेवाड़ पर अधिकार के लिए भेजा, लेकिन वह सफल नहीं हुआ।
    • कुंवर अमरसिंह ने शेरपुर में मुगल शिविर पर हमला कर खानखाना के परिवार की महिलाओं को बंदी बना लिया।
  2. प्रताप की महानता:
    • जब महाराणा प्रताप को इसकी सूचना मिली, उन्होंने तुरंत आदेश दिया कि खानखाना के परिवार को मुक्त कर दिया जाए।
    • यह उदारता अब्दुल रहीम खानखाना को द्रवित कर गई और प्रताप की नैतिक उच्चता को दर्शाती है।

भामाशाह का योगदान और आर्थिक समर्थन

  1. दानवीर भामाशाह:

    • चूलिया गाँव में भामाशाह ने महाराणा प्रताप को 25 लाख रुपये और 20,000 अशर्फियां भेंट कीं।
    • इस धन से महाराणा ने 25,000 सैनिकों की 12 वर्षों तक देखभाल की।
  2. भामाशाह का प्रधानमंत्री बनना:

    • भामाशाह की योग्यता को देखते हुए प्रताप ने उन्हें मेवाड़ का प्रधानमंत्री नियुक्त किया।
    • उनके योगदान को "मेवाड़ का उद्धारक" और "दानवीर" कहा गया।
  3. विवाद और ऐतिहासिक दृष्टिकोण:

    • इतिहासकार गौरीशंकर हीराचंद ओझा के अनुसार, यह धन संभवतः मेवाड़ के छिपाए गए राजकीय खजाने का हिस्सा था।
    • यह दिखाता है कि भामाशाह ने अपनी निजी संपत्ति नहीं बल्कि राजकीय कोष का सही समय पर उपयोग किया।

दिवेर का युद्ध (1582): मेवाड़ का माराथन

  1. युद्ध का प्रारंभ:

    • दिवेर में महाराणा प्रताप ने अकबर की सेना पर बड़ा आक्रमण किया।
    • अकबर के काका सेरिमा सुल्तान खां की हत्या कुंवर अमरसिंह ने अपने भाले से की।
    • इस विजय ने मुगलों की ताकत को कमजोर कर दिया और उन्हें भागने पर मजबूर कर दिया।
  2. महत्व और उपाधियाँ:

    • कर्नल टॉड ने इसे "प्रताप के गौरव का प्रतीक" और "मेवाड़ का माराथन" कहा।
    • यह युद्ध मुगलों पर महाराणा प्रताप की निर्णायक विजय का प्रतीक बन गया।
  3. माराथन युद्ध का संदर्भ:

    • माराथन का युद्ध 490 ई.पू. में फारसी सेना और एथेंस के बीच हुआ।
    • एथेंस की छोटी सेना ने विशाल फारसी सेना को हराकर अपनी प्रतिष्ठा को बढ़ाया।
    • दिवेर युद्ध को माराथन युद्ध के समकक्ष बताया गया क्योंकि यह भी एक कमजोर पक्ष की बड़ी विजय थी।

महाराणा प्रताप और छापामार युद्ध प्रणाली

  1. छापामार रणनीति:

    • हल्दीघाटी के बाद महाराणा प्रताप ने छापामार युद्ध प्रणाली अपनाई।
    • दुश्मन की रसद आपूर्ति को काटना, गुप्त आक्रमण करना और पहाड़ी क्षेत्रों का लाभ उठाना उनकी रणनीति का हिस्सा था।
  2. भीलों का योगदान:

    • भील समुदाय ने गुप्तचर, संदेशवाहक, और सैन्य सहायता के रूप में महाराणा का सहयोग किया।
    • उनके समर्थन से शस्त्र, खाद्य सामग्री, और कोष सुरक्षित रखा गया।
  3. स्वभूमिध्वंस नीति:

    • प्रताप ने दुश्मन को परेशान करने के लिए अपनी ही भूमि को नष्ट करने की रणनीति अपनाई।
    • इससे मुगलों के लिए स्थायी नियंत्रण स्थापित करना असंभव हो गया।

चावंड: आपातकालीन राजधानी

  1. चावंड का महत्व:

    • 1585 ई. में महाराणा प्रताप ने चावंड के दुर्गम क्षेत्र को अपनी राजधानी बनाया।
    • यह स्थान सुरक्षा की दृष्टि से उपयुक्त था क्योंकि शत्रु के आकस्मिक हमले की संभावना कम थी।
  2. निर्माण कार्य:

    • प्रताप ने चावंड में महल, चामुंडा मंदिर, और अन्य संरचनाओं का निर्माण कराया।

अंतिम दिन और विरासत

  1. चित्तौड़ और मांडलगढ़ को छोड़कर नियंत्रण:

    • महाराणा प्रताप ने अपने अंतिम समय तक मेवाड़ के अधिकांश हिस्सों को मुगलों से मुक्त कर लिया।
    • केवल चित्तौड़ और मांडलगढ़ पर ही मुगलों का अधिकार रह गया।
  2. मृत्यु और अंतिम संस्कार:

    • 19 जनवरी, 1597 को 57 वर्ष की आयु में चावंड में महाराणा प्रताप का निधन हुआ।
    • उनका अंतिम संस्कार बांडोली गाँव के निकट किया गया, जहाँ 8 खंभों की छतरी उनकी याद दिलाती है।
  3. उपाधियाँ:

    • महाराणा प्रताप को "मेवाड़ केसरी" और "हिंदुआ सूरज" कहा जाता है।


महाराणा अमरसिंह प्रथम (1597-1620 ई.) - बिंदुवार विवरण:

  1. राज्याभिषेक:

    • 19 जनवरी, 1597 को महाराणा अमरसिंह का राज्याभिषेक हुआ।
    • नई राजधानी चावण्ड में उनका राज्याभिषेक हुआ।
    • उनके शासन को 'राजपूत काल का अभ्युदय' कहा जाता है।
  2. मुगल आक्रमण और संघर्ष:

    • 1599 में सलीम (जहाँगीर) का आक्रमण: अकबर के आदेश पर सलीम ने मेवाड़ पर आक्रमण किया, लेकिन वह जल्दी वापस लौट गया।
    • 1603 में सलीम का पुनः आक्रमण: सलीम ने मेवाड़ की ओर सेना भेजी, लेकिन कोई विशेष सफलता प्राप्त नहीं हुई।
    • 1605 में जहाँगीर का सम्राट बनना: जहाँगीर ने अपने शासन के तहत 22,000 घुड़सवारों के साथ मेवाड़ पर आक्रमण किया, लेकिन कोई महत्वपूर्ण सफलता नहीं मिली।
    • 1608 में महाबत खान का आक्रमण: महाबत खान के नेतृत्व में मेवाड़ पर आक्रमण किया गया, लेकिन सफलता नहीं मिली।
    • 1609 और 1612 में अन्य आक्रमण: अब्दुल्ला और राजा बासू के नेतृत्व में आक्रमण किए गए, लेकिन राणा ने छापामार युद्ध से मुगलों की हालत खराब कर दी।
  3. मुगल-मेवाड़ संधि (1615 ई.):

    • 1615 में राणा अमरसिंह ने मुगलों के साथ संधि की, क्योंकि युद्ध की स्थिति अत्यंत दयनीय हो गई थी।
    • संधि की शर्तें:
      • राणा को मुगलों के दरबार में सेवा में शामिल होना पड़ा।
      • चित्तौड़ दुर्ग को लौटा दिया गया, लेकिन उसकी मरम्मत नहीं की जाएगी।
      • राणा को एक हजार घुड़सवारों के साथ मुगलों की सेवा में रहना पड़ा।
      • राणा के लिए वैवाहिक संबंधों में कोई बाध्यता नहीं थी।
  4. स्वीकृति और पश्चाताप:

    • संधि के बाद राणा अमरसिंह को अपने निर्णय पर गहरा पछतावा हुआ।
    • उन्होंने राज्य कार्य अपने पुत्र कर्ण को सौंप दिया और खुद एकान्तवास में चले गए।
  5. मृत्यु और अंतिम संस्कार:

    • 26 जनवरी, 1620 को राणा अमरसिंह का निधन हो गया।
    • उनका अंतिम संस्कार आहड़ (गंगोद्भव) में किया गया।
    • आहड़ में मेवाड़ के राणाओं की छतरियाँ स्थित हैं, जहाँ उनकी छतरी सबसे पहली बनी।

सारांश: महाराणा अमरसिंह का शासन संघर्ष और संधि की दुविधा का समय था, जिसमें मुगलों से संधि करना पड़ा। यह संधि मेवाड़ की स्वतंत्रता की समाप्ति का प्रतीक बनी, और उन्होंने अंतिम समय में राज्य कार्य अपने पुत्र को सौंपकर एकान्तवास किया।





राणा कर्णसिंह (1620-1628 ई.)

  1. राज्याभिषेक और प्रशासनिक सुधार:
    राणा कर्णसिंह का जन्म 7 जनवरी, 1584 को हुआ और उनका राज्याभिषेक 26 जनवरी, 1620 को हुआ। राज्याभिषेक के अवसर पर जहाँगीर ने राणा की पदवी का फरमान, खिलअत आदि भेजे। कर्णसिंह ने राज्य के प्रशासन में सुधार किये और राज्य को परगनों में बाँटा। इन परगनों के अधिकारियों में पटेल, पटवारी और चौधरी शामिल किये गए, जिससे व्यापार और वाणिज्य में सुव्यवस्था आई और स्थायित्व की भावना मजबूत हुई।

  2. खुर्रम से संबंध:
    जब खुर्रम (शाहजहाँ) ने अपने पिता जहाँगीर के खिलाफ विद्रोह किया (1622 ई.), तो राणा कर्णसिंह ने खुर्रम को पनाह दी। खुर्रम ने पहले देलवाड़ा की हवेली और फिर जगमंदिर में ठहरने का विचार किया, और कर्णसिंह ने उसे शान्तिपूर्वक माण्डू की ओर दक्षिण भेजने की व्यवस्था की, जिससे उनके और खुर्रम के संबंध मजबूत हुए।

  3. मृत्यु:
    राणा कर्णसिंह ने शाहजहाँ के आगरा जाने पर उसका स्वागत किया और उसकी यात्रा की सुरक्षा की व्यवस्था की। हालांकि, वह 1628 ई. में अस्वस्थ हो गए और उनका निधन हो गया।

  4. निर्माण कार्य:
    राणा कर्णसिंह ने कर्ण विलास, दिलखुश महल, बड़ा दरीखना आदि में मुगल स्थापत्य की विशेषताओं को अपनाया और सामंजस्य की भावना को स्वीकार किया। उन्होंने जगमंदिर के महलों का निर्माण भी शुरू किया, जिसे उनके पुत्र महाराणा जगतसिंह ने पूरा किया। यही कारण है कि इन महलों का नाम "जगमंदिर" पड़ा।


महाराणा जगतसिंह प्रथम (1628-1652 ई.)

  1. जसवन्तसिंह का वध:
    कर्णसिंह के बाद उनका पुत्र महाराणा जगतसिंह प्रथम 1628 में गद्दी पर बैठा। उसके शासन में, देवलिया-प्रतापगढ़ के शासक जसवन्तसिंह ने मेवाड़ के प्रभाव को अपनी सीमा से हटाने का प्रयास किया। राणा ने गुप्त तरीके से जसवन्त और उसके बेटे मानसिंह को उदयपुर बुलाकर मरवा दिया। इस घटना के बाद शाहजहाँ ने प्रतापगढ़ को मेवाड़ से अलग कर दिया।

  2. चित्तौड़ दुर्ग की मरम्मत:
    महाराणा जगतसिंह ने चित्तौड़ दुर्ग की मरम्मत करवाई और अपने वंश के गौरव को बचाए रखा। उन्होंने अपनी सुरक्षा व्यवस्था को भी सुदृढ़ किया।

  3. निर्माण कार्य और मन्दिरों का निर्माण:
    जगतसिंह ने उदयपुर में जगन्नाथराय (जगदीश विष्णु) का भव्य पंचायतन मंदिर बनवाया। इस मंदिर का निर्माण अर्जुन की निगरानी में हुआ, और इसकी प्रशंसा कृष्णभट्ट ने की। राणा ने मोहनमंदिर और रूपसागर तालाब का निर्माण भी कराया। साथ ही, जगमंदिर में जनाना महल आदि बनवाकर इसे 'जगमंदिर' नाम दिया।

  4. मृत्यु:
    महाराणा जगतसिंह का स्वर्गवास 10 अप्रैल, 1652 को हुआ।

राणा कर्णसिंह और राणा जगतसिंह दोनों ने प्रशासनिक सुधारों और निर्माण कार्यों में अपनी भूमिका निभाई। जगतसिंह ने धार्मिक और सांस्कृतिक निर्माण कार्यों को बढ़ावा दिया और मेवाड़ के गौरव को संरक्षित किया।






महाराणा राजसिंह प्रथम (1652-1680 ई.) के शासन के प्रमुख घटनाएँ:


  1. राज्याभिषेक और प्रशासनिक सुधार:

    • राणा राजसिंह का राज्याभिषेक 10 अक्टूबर, 1652 को हुआ।
    • शाहजहाँ ने राणा को पाँच हज़ारी जात, पाँच हजार सवारों का मनसब और विभिन्न उपहार भेजे।
    • चित्तौड़ की मरम्मत के कार्य को पूरा करने के लिए उन्होंने प्रयास किया, लेकिन मुगलों ने इसे सहन नहीं किया और किले की दीवारों को गिरवाने के लिए 30,000 सेना भेजी।
  2. मुगल सम्राटों से संघर्ष:

    • 1658 में शाहजहाँ की कमजोर स्थिति का लाभ उठाकर राणा ने 'टीका दौड़' के उत्सव के बहाने मुगलों पर हमले किए।
    • इस युद्ध में राणा को लाखों रुपये की सम्पत्ति मिली और उसने अपनी खोई हुई ज़मीन वापस ली।
  3. औरंगजेब के साथ संघर्ष:

    • जब औरंगजेब सम्राट बना, तो उसने राणा के पद को 6,000 'जात' और 6,000 'सवार' बढ़ा दिया।
    • औरंगजेब द्वारा मन्दिरों को तोड़ने, जजिया कर लगाने और हिन्दू धार्मिक स्थलों को नष्ट करने के आदेशों का विरोध करते हुए राणा ने खुद को स्वतंत्र बनाए रखा।
  4. राजकुमारी चारुमती का विवाह:

    • चारुमती, जो किशनगढ़ के राजा मानसिंह की बहन थी, ने महाराणा राजसिंह से विवाह का अनुरोध किया।
    • राणा ने किशनगढ़ पहुँचकर चारुमती से विवाह किया, जो औरंगजेब के लिए अपमानजनक था। इसके कारण औरंगजेब ने राणा से कई परगने छीन लिए।
  5. मुगल-सिसोदिया-राठौड़ युद्ध:

    • 1678 में जब महाराजा जसवन्तसिंह की मृत्यु हुई, तो औरंगजेब ने मारवाड़ को खालसा घोषित कर दिया। राठौड़ और सिसोदिया ने मिलकर मुगलों के खिलाफ संघर्ष किया।
    • राणा ने राठौड़ों के साथ मिलकर मुगलों का विरोध किया, क्योंकि राठौड़ परिवार की माँ राणा की निकट संबंधी थी।
  6. राजसमंद झील का निर्माण:

    • राणा ने गोमती नदी का पानी रोककर राजसमंद झील का निर्माण कराया, जो विश्व में सबसे बड़ा शिलालेख और शिलाओं पर खुदे हुए ग्रंथों में से एक है।
    • इसके अलावा, राणा ने झील के पास सर्वऋतु विलास और जनसागर का निर्माण किया, जिससे शिल्पकला को बढ़ावा मिला।
  7. धर्मनिष्ठा और मूर्तियों की स्थापना:

    • उन्होंने गोसाई लोगों को आश्रय दिया, जिन्होंने श्रीनाथजी की मूर्तियाँ लाकर कांकरोली और सिहाड़ में स्थापित की।
    • राणा ने अपनी धर्मनिष्ठा का परिचय देते हुए अपनी भूमि पर धार्मिक स्थलों को बनवाने का कार्य किया।
  8. मृत्यु:

    • महाराणा राजसिंह का 1680 में निधन हो गया।





हाड़ी रानी (सहल कंवर) के घटनाएँ:

  1. सहल कंवर और रतनसिंह चुंडावत का विवाह:

    • हाड़ी रानी, जो हाड़ा वंश की राजकुमारी सहल कंवर थीं, सलूम्बर के सामन्त रतनसिंह चुंडावत की नवविवाहिता पत्नी थीं।
    • रतनसिंह युद्ध के लिए जा रहे थे और उन्हें अपनी पत्नी की याद सता रही थी।
  2. हाड़ी रानी का आत्मबलिदान:

    • रतनसिंह ने अपनी पत्नी से युद्ध की निशानी (सैनाणी) भेजने का आग्रह किया ताकि युद्ध में ध्यान न बटे।
    • हाड़ी रानी ने सोचा कि अगर रतनसिंह उनकी यादों के कारण ध्यान बंटेगा, तो वह अपना कर्तव्य पूरा नहीं कर पाएंगे।
    • रानी ने स्वयं तलवार लेकर अपना सिर काट डाला और उसका कटा सिर सेवक से भेजा।
  3. रतनसिंह का युद्ध और विजय:

    • रतनसिंह ने रानी का कटा सिर प्राप्त किया और यह देखकर उनकी भुजाएं फड़क उठीं।
    • उन्होंने शत्रु पर हमला किया और युद्ध में विजय प्राप्त की, लेकिन वीरगति को प्राप्त हुए।

महाराणा जयसिंह (1680-1698 ई.) के शासन के प्रमुख घटनाएँ:

  1. मुगल-मेवाड़ सन्धि:

    • मुगलों के साथ एक सन्धि हुई जिसके अनुसार मेवाड़ को कुछ इलाके और जजिया देने का निर्णय लिया गया।
    • इस सन्धि के बाद युद्ध स्थगित किया गया, लेकिन राजपूत दक्षिण अभियान में मुगलों से तटस्थ रहे।
  2. जयसमंद झील का निर्माण:

    • महाराणा जयसिंह ने सार्वजनिक कार्यों में जयसमंद झील का निर्माण किया, जो आज भी मेवाड़ की जनता के लिए लाभकारी है।

महाराणा नारायण अमरसिंह-द्वितीय (1698-1710 ई.) के शासन के प्रमुख घटनाएँ:

  1. देबारी समझौता (1708):
    • इस समझौते में मुअज्जम (बहादुर शाह) से जयपुर और मारवाड़ के राजाओं के राज्य छीनने का निर्णय लिया।
    • इसके अंतर्गत अमरसिंह द्वितीय की पुत्री चंद्रकंवर का विवाह सवाई जयसिंह से हुआ।
    • समझौते के अनुसार चंद्रकंवर का पुत्र जयपुर का शासक बनना था, लेकिन सवाई जयसिंह ने अपने पुत्र ईश्वरी सिंह को शासक बना दिया।

महाराणा जगतसिंह द्वितीय (1734-1778 ई.) के शासन के प्रमुख घटनाएँ:

  1. महाराणा संग्राम सिंह की मृत्यु के बाद सत्ता का हस्तांतरण:

    • संग्राम सिंह की मृत्यु के बाद, महाराणा जगतसिंह द्वितीय ने 1734 में मेवाड़ की सत्ता संभाली।
  2. नादिरशाह और मराठों का आक्रमण:

    • इस समय अफगान आक्रमणकारी नादिरशाह ने दिल्ली पर आक्रमण किया और उसे लूटा।
    • मराठों ने भी मेवाड़ में पहली बार प्रवेश किया और कर वसूल किया।
  3. राजपूताना का सम्मेलन (1734):

    • महाराणा जगतसिंह द्वितीय ने 1734 में हुरड़ा (भीलवाड़ा) में राजपूताना के राजाओं का सम्मेलन आयोजित किया।
    • इस सम्मेलन का उद्देश्य मराठों के खिलाफ एक शक्तिशाली मंच बनाना था, जिसे महाराणा संग्राम सिंह द्वितीय के समय प्रस्तावित किया गया था।