राव जोधा के बाद राव सातल ने मारवाड़ के शासन की बागडोर संभाली। उन्होंने अपने शासनकाल में राठौड़ राज्य को सुदृढ़ बनाने का प्रयास किया।
- सातलमेर का निर्माण: अपने नाम से सातलमेर नगर बसाकर ख्याति अर्जित की।
- अजमेर पर आक्रमण:
- 1490 ई. में अजमेर के हाकिम मल्लू खां ने सातल के भाई वरसिंह को छलपूर्वक बंदी बना लिया।
- राव सातल ने राव बीका के साथ मिलकर अजमेर पर आक्रमण किया, जिससे मल्लू खां ने वरसिंह को रिहा कर दिया।
- पीपाड़ का युद्ध:
- मल्लू खां ने मारवाड़ पर सैन्य अभियान चलाया। राव सातल ने पीपाड़ के पास मल्लू खां को हराया।
- कोसाना युद्ध: मल्लू खां का सेनापति मीर घडूला 140 सुहागिन स्त्रियों को बंदी बनाकर ले गया। राव सातल ने वरसिंह, दूदा, सूजा आदि के साथ रात में आक्रमण कर मीर घडूला को मार दिया और कन्याओं को मुक्त करवाया।
- घुड़ला त्योहार: इस विजय के उपलक्ष्य में जोधपुर में घुड़ला त्योहार मनाया जाता है।
मृत्यु
- पीपाड़ युद्ध में घायल राव सातल का 13 मार्च 1492 ई. (चैत्र शुक्ल तृतीया) को निधन हो गया।
- इसके बाद मारवाड़ में इस दिन केवल गौरी पूजा की जाने लगी।
राव सूजा (1492-1515 ई.)
राव सातल की मृत्यु के बाद उनके छोटे भाई राव सूजा ने शासन संभाला।
- बीकानेर विवाद:
- राव जोधा ने राव बीका को राजचिह्न और अन्य पूजनीय वस्तुएं देने का वचन दिया था।
- राव सूजा ने इन वस्तुओं को देने से इंकार किया।
- राव बीका ने जोधपुर पर आक्रमण कर दिया, लेकिन जसमा दे की मध्यस्थता से संधि हुई और बीका को वस्तुएं वापस मिलीं।
- इनमें जोधा की तलवार, छत्र, तख्त, नागणेची माता की मूर्ति, भंवर ढोल, और दलसिंगार घोड़ा शामिल थे।
राव गांगा (1515-1532 ई.)
राव सूजा के बाद उनके पौत्र राव गांगा ने शासन संभाला।
- राणा सांगा से मित्रता:
- राणा सांगा के साथ गठबंधन कर अपनी समस्याएं हल कीं।
- 1527 ई. के खानवा युद्ध में अपने पुत्र राव मालदेव के नेतृत्व में 4000 सैनिक भेजे।
- निर्माण कार्य:
- जोधपुर में गांगालाव तालाब और गांगा की बावड़ी का निर्माण करवाया।
- सिरोही से लाई गई श्यामजी की मूर्ति गंगश्याम के नाम से प्रसिद्ध हुई।
मृत्यु का विवाद
- रेऊजी के अनुसार, अफीम की पिनक में महल की खिड़की से गिरकर मृत्यु।
- डॉ. ओझा का मत: महत्वाकांक्षी पुत्र मालदेव ने जानबूझकर उन्हें खिड़की से गिरा दिया।
- मुण्डियार ख्यात में उल्लेख है कि मालदेव ने राव गांगा के अंगरक्षकों पर भी हमला किया।
महत्व
राव गांगा का शासन मारवाड़ को स्थिरता देने और सांस्कृतिक योगदान के लिए प्रसिद्ध रहा। उनकी मृत्यु के बाद मारवाड़ का नेतृत्व उनके पुत्र राव मालदेव ने संभाला।
राव मालदेव (1532-1562 ई.)
राव मालदेव, राठौड़ वंश के सबसे प्रसिद्ध शासकों में से एक, अपने पिता राव गांगा की मृत्यु के बाद 5 जून 1532 को जोधपुर की गद्दी पर बैठे। उनका राज्याभिषेक सोजत में हुआ। प्रारंभ में उनका नियंत्रण केवल सोजत और जोधपुर के परगनों तक सीमित था।
विवाह और पारिवारिक विवाद
- 1536 ई. में मालदेव का विवाह जैसलमेर के लूणकरण की पुत्री उम्मादे से हुआ।
- किसी कारणवश लूणकरण ने मालदेव की हत्या का प्रयास किया, जिसकी जानकारी मालदेव को रानी लूणकरण द्वारा भिजवाई गई।
- इससे मालदेव उम्मादे से अप्रसन्न हो गए, और रानी ‘रूठी रानी’ के नाम से विख्यात हुईं।
- जब मालदेव का देहांत हुआ, उम्मादे सती हो गईं।
राजनीतिक विजय और विस्तार
मेवाड़ की सहायता:
- 1532 ई. में गुजरात के सुल्तान बहादुर शाह के मेवाड़ पर आक्रमण के समय मालदेव ने विक्रमादित्य की सहायता की।
- राणा उदयसिंह को चित्तौड़ के सिंहासन पर बैठाने में सहयोग दिया।
- इसके बदले महाराणा ने मालदेव को बसंतराय हाथी और चार लाख फीरोजे भेंट किए।
भाद्राजूण पर अधिकार:
- मालदेव ने भाद्राजूण (जालोर) के शासक सींधल स्वामी वीरा पर आक्रमण कर उसे पराजित किया।
नागौर पर अधिकार:
- नागौर के शासक दौलत खां ने मेड़ता पर अधिकार करना चाहा, जिससे मालदेव ने नागौर पर कब्जा कर लिया।
- वीरम मांगलियोत को नागौर का हाकिम नियुक्त किया।
मेड़ता और अजमेर पर अधिकार:
- वीरमदेव और मालदेव के बीच का विवाद दरियाजोश हाथी के कारण बढ़ा।
- मालदेव ने वीरमदेव को मेड़ता से खदेड़कर अजमेर पर अधिकार कर लिया।
- वीरमदेव ने शेरशाह सूरी की शरण ली।
सिवाणा पर अधिकार:
- 1538 ई. में सिवाणा के शासक डूंगरजी (जैत मालोत) को हराकर सिवाणा पर कब्जा किया।
- किले का प्रबंधन मांगलिया देवा को सौंपा।
जालोर पर अधिकार:
- जालोर के शासक सिकंदर खां को बंदी बनाया।
- कैद में रहते हुए सिकंदर खां की मृत्यु हो गई।
महत्व और प्रभाव
- राव मालदेव ने अपने कुशल नेतृत्व और सैन्य शक्ति के बल पर मारवाड़ को एक शक्तिशाली राज्य के रूप में स्थापित किया।
- उनके शासनकाल में मारवाड़ का क्षेत्रीय विस्तार हुआ और राज्य प्रशासन को सुदृढ़ बनाया गया।
मेवाड़-मारवाड़ के बीच टकराव
स्वरूपदे और वीरबाई का विवाद
- मेवाड़ के जैतसिंह ने मारवाड़ आकर मालदेव राठौड़ से सहायता ली। मालदेव ने उन्हें खैरवा की जागीर प्रदान की।
- आभार स्वरूप जैतसिंह ने अपनी बड़ी पुत्री स्वरूपदे का विवाह मालदेव राठौड़ से किया।
- जब मालदेव अपने ससुराल खैरवा गए, तो उन्होंने जैतसिंह की छोटी पुत्री वीरबाई झाली को देखकर उसका विवाह भी स्वयं से करने की इच्छा व्यक्त की।
- इसे जैतसिंह ने अपना अपमान समझा और वीरबाई का विवाह मेवाड़ के शासक उदयसिंह से कर दिया।
- इस अपमान का बदला लेने के लिए मालदेव ने कुंभलगढ़ पर आक्रमण किया, लेकिन दुर्ग की मजबूती और लंबे घेराव के बावजूद इसे जीतने में असफल रहे।
पहोबा/साहेबा का युद्ध (1542 ई.)
- मालदेव ने अपने साम्राज्य का विस्तार करने के लिए कूपा के नेतृत्व में बीकानेर की ओर एक बड़ी सेना भेजी।
- बीकानेर के शासक राव जैतसी ने साहेबा के मैदान में मालदेव की सेना का सामना किया।
- युद्ध में राव जैतसी वीरगति को प्राप्त हुए, और मालदेव ने बीकानेर पर विजय प्राप्त की।
- हालांकि, इस युद्ध ने जैसलमेर, मेवाड़ और बीकानेर के साथ मालदेव के संबंधों को और अधिक खराब कर दिया।
मालदेव और हुमायूँ
- बाबर के बाद 1530 में हुमायूँ मुगल सम्राट बना।
- हुमायूँ ने 1539 के चौसा के युद्ध में अफगान शासक शेरशाह सूरी से पहली बार हार का सामना किया।
- चौसा का युद्ध इतिहास में पहली घटना थी जब अफगानों ने मुगलों को पराजित किया।
- 1540 में कन्नौज के युद्ध में शेरशाह ने हुमायूँ को निर्णायक रूप से हराकर उसे दर-दर भटकने पर मजबूर कर दिया।
- इस दौरान मालदेव ने अपनी स्थिति को मजबूत करने और साम्राज्य विस्तार पर ध्यान केंद्रित किया।
सारांश
राव मालदेव के शासनकाल में उनकी महत्वाकांक्षाओं ने मारवाड़ को एक शक्तिशाली राज्य बना दिया, लेकिन उनके आक्रामक रवैये ने कई शत्रु पैदा किए। वीरता और विस्तार के बावजूद, उनके व्यक्तिगत और राजनीतिक निर्णयों ने कई महत्वपूर्ण गठबंधनों को कमजोर कर दिया।
राव मालदेव और शेरशाह का टकराव
- मेड़ता के वीरमदेव और बीकानेर के कल्याणमल के उकसावे तथा हुमायूँ को शरण देने के प्रयास के कारण शेरशाह सूरी ने मालदेव के खिलाफ सैन्य अभियान चलाया।
- शेरशाह को भय था कि मालदेव जैसे शक्तिशाली शासक के नेतृत्व में राजपूत एकजुट हो सकते हैं।
- शेरशाह ने 80,000 सैनिकों के साथ मारवाड़ पर चढ़ाई की। मालदेव के पास भी लगभग 50,000 से 80,000 सैनिक थे।
गिरि-सुमेल का युद्ध (1544 ई.)
- शेरशाह और मालदेव के बीच युद्ध जैतारण (ब्यावर) के पास गिरि-सुमेल नामक स्थान पर हुआ।
- शेरशाह ने मालदेव के सेनानायकों जैता और कूँपा के शिविरों में धन भेजकर मालदेव को उनके खिलाफ भड़काया।
- मालदेव ने अपने विश्वस्त सेनानायकों पर विश्वास न कर उन्हें छोड़ दिया और अपनी सेना के आधे भाग के साथ पीछे हट गया।
- जैता और कूँपा ने अपनी सेना के साथ वीरता से लड़ाई की लेकिन वे शेरशाह की विशाल सेना के आगे वीरगति को प्राप्त हुए।
- युद्ध के बाद शेरशाह ने कहा, "अगर एक भुठ्ठी भर बाजरे के लिए मुझे इतना संघर्ष करना पड़ा, तो मैं हिंदुस्तान की बादशाहत भी खो सकता था।"
शेरशाह का जोधपुर पर अधिकार
- युद्ध के बाद शेरशाह ने अपनी सेना को दो भागों में विभाजित किया।
- एक भाग खवास खाँ और ईसाखाँ के नेतृत्व में जोधपुर भेजा गया।
- दूसरा भाग शेरशाह के नेतृत्व में अजमेर पर चढ़ाई के लिए गया।
- शेरशाह ने अजमेर और जोधपुर पर अधिकार कर लिया।
- जोधपुर का प्रशासन खवास खाँ को सौंपा गया।
मालदेव का पुनः जोधपुर पर अधिकार
- शेरशाह की 1545 ई. में कालिंजर अभियान के दौरान उक्का नामक अस्त्र चलाते समय मृत्यु हो गई।
- इसके बाद मालदेव ने जोधपुर पर पुनः अधिकार कर लिया।
- शेरशाह का जोधपुर पर एक वर्ष तक नियंत्रण रहा।
राव मालदेव की उपलब्धियाँ और मृत्यु
- राव मालदेव ने अपने जीवनकाल में 52 युद्ध लड़े और सबसे अधिक 58 परगनों पर शासन किया।
- उन्होंने राजपूत शक्ति को पुनः संगठित किया और मारवाड़ को एक सशक्त राज्य बनाया।
- 7 नवंबर 1562 ई. को उनका निधन हुआ।
सारांशराव चंद्रसेन का जीवन (1562-1581 ई.)
सारांश:
राव चंद्रसेन का शासन काल संघर्षों से भरा रहा। उन्होंने अपने राज्य की रक्षा के लिए कई युद्ध लड़े, लेकिन अकबर की कूटनीति के कारण मारवाड़ धीरे-धीरे मुगलों के प्रभाव में आ गया। नागौर दरबार ने मारवाड़ की परतंत्रता की स्थिति को और मजबूती से स्थापित किया।
राव मालदेव एक वीर और महत्वाकांक्षी शासक थे, लेकिन उनके आत्मसम्मान और संदेह ने कई बार उनके सहयोगियों को उनसे दूर कर दिया। गिरि-सुमेल के युद्ध में उनकी हार राजपूतों की एकजुटता की कमी और शेरशाह की कूटनीति का परिणाम थी। फिर भी, उनका शासनकाल मारवाड़ के इतिहास में गौरवपूर्ण अध्याय के रूप में जाना जाता है।
राव चंद्रसेन का जीवन और संघर्ष (1562-1581 ई.)
भाद्राजूण से सिवाना तक का संघर्ष:
- राव चंद्रसेन ने भाद्राजूण में मुगलों के खिलाफ संघर्ष जारी रखा, लेकिन जब मुगलों ने चारों ओर से घेर लिया, तो 1571 ई. में उन्होंने भाद्राजूण छोड़कर सिवाना की ओर रुख किया।
- 1573 ई. में अकबर ने चंद्रसेन को अधीन करने के लिए शाहकुली खाँ के नेतृत्व में सेना भेजी, जो सोजत में चंद्रसेन के भतीजे कल्ला को पराजित कर सिवाना पहुँची।
सिवाना का संघर्ष और पहाड़ी युद्ध:
- चंद्रसेन ने सिवाना के दुर्ग की रक्षा का जिम्मा पत्ता राठौड़ को सौंपकर पहाड़ी इलाकों में छापामार युद्ध शुरू कर दिया।
- 1575 ई. में सिवाना का दुर्ग मुगलों के कब्जे में आ गया, लेकिन चंद्रसेन ने संघर्ष जारी रखा और मुगलों को नुकसान पहुँचाया।
पोकरण का समझौता:
- 1575 ई. में रावल हरराय ने पोकरण पर आक्रमण किया। चार माह तक घेराबंदी के बाद राव चंद्रसेन ने एक समझौता किया।
- रावल हरराय ने प्रस्ताव दिया कि “एक लाख फदिये के बदले मुझे पोकरण दे दो, जोधपुर पर कब्जा होने के बाद यह एक लाख फदिये वापिस ले लेना”।
- चंद्रसेन ने यह प्रस्ताव स्वीकार कर जनवरी 1576 ई. में पोकरण भाटियों को सौंप दिया।
सरवाड़ और अजमेर पर आक्रमण:
- 1579 ई. में चंद्रसेन ने सरवाड़ के मुगली थाने को लूटकर अपने अधिकार में ले लिया।
- इसके बाद उसने अजमेर प्रांत पर भी आक्रमण शुरू कर दिए।
सोजत पर हमला और मृत्यु:
- 7 जुलाई 1580 ई. को चंद्रसेन ने सोजत पर हमला कर उसे अपने नियंत्रण में ले लिया और सरण पर्वत (पाली) में सचियाप नामक स्थान पर अपना निवास बनाया।
- 11 जनवरी 1581 ई. को उनकी मृत्यु हुई। जोधपुर राज्य की ख्यात के अनुसार, एक सामंत वैरसल ने विश्वासघात करते हुए उन्हें जहर दिया, जिसके कारण उनकी मृत्यु हुई।
चंद्रसेन की विरासत:
- राव चंद्रसेन को मारवाड़ का भूला-बिसरा नायक कहा जाता है। वे अकबरकालीन राजस्थान के पहले स्वतंत्र शासक थे, जिन्होंने अपनी रणनीति में दुर्ग की बजाय जंगल और पहाड़ी इलाकों को महत्व दिया।
- वे छापामार युद्ध के महत्वपूर्ण प्रवर्तक थे, और उनके बाद महाराणा प्रताप ने भी इसी प्रणाली को अपनाया।
- राव चंद्रसेन को 'मारवाड़ का प्रताप' भी कहा जाता है और वे महाराणा प्रताप के पथ प्रदर्शक माने जाते हैं।
अकबर से संघर्ष:
- राव चंद्रसेन, महाराणा प्रताप के साथ मिलकर अकबर की अधीनता स्वीकार नहीं करने वाले दो प्रमुख राजपूत शासकों में से एक थे।
- राव चंद्रसेन और महाराणा प्रताप ने अपने स्वाभिमान की रक्षा के लिए अकबर के खिलाफ संघर्ष किया और कष्टों का मार्ग अपनाया।
सारांश:
राव चंद्रसेन एक वीर और स्वाभिमानी शासक थे जिन्होंने अकबर के खिलाफ निरंतर संघर्ष किया और स्वाधीनता की रक्षा के लिए छापामार युद्ध प्रणाली का पालन किया। उनके संघर्षों और स्वतंत्रता के प्रति समर्पण ने उन्हें राजस्थान के महान नायकों में स्थान दिलाया।
मोटाराजा उदयसिंह (1583-1595 ई.)
जोधपुर राज्य का अधीनता स्वीकारना: राव चंद्रसेन की मृत्यु के बाद जोधपुर राज्य 1581-1583 तक मुगलों के अधीन नहीं था, लेकिन 1583 में अकबर ने उदयसिंह को मारवाड़ का शासक नियुक्त किया और उन्हें खिलअत (सम्मान) और खिताब से नवाजा। इसके साथ ही, वे मारवाड़ के पहले शासक बने जिन्होंने मुगलों की अधीनता स्वीकार की।
शहजादा सलीम के साथ वैवाहिक संबंध: 1587 ई. में, उदयसिंह ने अपनी पुत्री मानबाई का विवाह शहजादा सलीम (जो बाद में जहाँगीर के नाम से प्रसिद्ध हुए) से किया। इस विवाह के बाद, उदयसिंह को 1000 का मनसब (पद) दिया गया। यह पहला अवसर था जब जोधपुर के शासक ने मुगलों से वैवाहिक संबंध स्थापित किया। इस विवाह से शहजादा खुर्रम (शाहजहाँ) का जन्म हुआ, जो बाद में मुगल सम्राट बने।
सवाई राजा शूरसिंह (1595-1619 ई.)
सवाई राजा का उपाधि प्राप्त करना: उदयसिंह की मृत्यु के बाद, अकबर ने उनके कई बड़े भाइयों के होते हुए भी शूरसिंह को मारवाड़ का शासक स्वीकार किया। 1604 ई. में अकबर ने उन्हें सवाई राजा की उपाधि दी और मनसब 2000 जात और 2000 सवार का पद दिया।
जहाँगीर द्वारा सम्मानित किया जाना: 1608 ई. में जहाँगीर ने शूरसिंह का मनसब बढ़ाकर 3000 जात और 3000 सवार कर दिया।
मेवाड़ अभियान में भाग लेना: 1613 ई. में, शूरसिंह शहजादा खुर्रम (शाहजहाँ) के मेवाड़ अभियान में भाग लिया।
मृत्यु: 1619 ई. में शूरसिंह की मृत्यु हो गई।
महाराजा गजसिंह (1619-1638 ई.)
गजसिंह का शासक बनना: शूरसिंह की मृत्यु के बाद, जहाँगीर ने उनके पुत्र गजसिंह को मारवाड़ का शासक नियुक्त किया और उन्हें 3000 जात और 2000 सवार का मनसब दिया। 1621 ई. में, गजसिंह को शहजादा खुर्रम के खिलाफ भेजा गया।
'दलथंभन' की उपाधि: जहाँगीर ने गजसिंह की वीरता से प्रसन्न होकर उन्हें 'दलथंभन' (फौज को रोकने वाला) की उपाधि दी और उनके घोड़े को शाही दाग से मुक्त कर दिया।
महाराजा की उपाधि: 1630 ई. में, गजसिंह को 'महाराजा' की उपाधि से नवाजा गया।
उत्तराधिकारी: गजसिंह का बड़ा पुत्र अमरसिंह था, लेकिन उन्होंने अपने छोटे पुत्र जसवंतसिंह को अपना उत्तराधिकारी घोषित किया।
राव अमरसिंह राठौड़
राज्य से निष्कासन: गजसिंह ने अपने बड़े पुत्र अमरसिंह को उसकी स्वतंत्र और विद्रोही प्रवृत्ति के कारण राज्य से निकाल दिया। इसके बाद, शाहजहाँ ने अमरसिंह को नागौर परगने का स्वतंत्र राजा बना दिया।
भतीरे की राड़ (1644): 1644 ई. में बीकानेर और जोधपुर के किसानों के बीच एक भूमि विवाद हुआ, जिसे लेकर सैनिकों के बीच झगड़ा हुआ और कई सैनिक मारे गए। यह घटना 'मतीरे की राड़' के नाम से प्रसिद्ध हुई।
सलावत खां की हत्या: 1644 ई. में, शाहजहाँ के साले सलावत खां ने अमरसिंह को "गंवार" कहकर अपमानित किया। इसके बाद, अमरसिंह ने सलावत खां की हत्या कर दी। इसके बाद, खलीमुल्ला और बिट्ठदास के पुत्र अर्जुन से युद्ध करते हुए अमरसिंह शहीद हो गए।
प्रसिद्ध वीरता: अमरसिंह राठौड़ राजकुमारों में अपनी वीरता और साहस के लिए प्रसिद्ध थे, और आज भी 'अमरसिंह राठौड़ के ख्याल' प्रसिद्ध हैं।
मोटाराजा उदयसिंह (1583-1595 ई.)
जोधपुर राज्य का अधीनता स्वीकारना: राव चंद्रसेन की मृत्यु के बाद जोधपुर राज्य 1581-1583 तक मुगलों के अधीन नहीं था, लेकिन 1583 में अकबर ने उदयसिंह को मारवाड़ का शासक नियुक्त किया और उन्हें खिलअत (सम्मान) और खिताब से नवाजा। इसके साथ ही, वे मारवाड़ के पहले शासक बने जिन्होंने मुगलों की अधीनता स्वीकार की।
शहजादा सलीम के साथ वैवाहिक संबंध: 1587 ई. में, उदयसिंह ने अपनी पुत्री मानबाई का विवाह शहजादा सलीम (जो बाद में जहाँगीर के नाम से प्रसिद्ध हुए) से किया। इस विवाह के बाद, उदयसिंह को 1000 का मनसब (पद) दिया गया। यह पहला अवसर था जब जोधपुर के शासक ने मुगलों से वैवाहिक संबंध स्थापित किया। इस विवाह से शहजादा खुर्रम (शाहजहाँ) का जन्म हुआ, जो बाद में मुगल सम्राट बने।
सवाई राजा शूरसिंह (1595-1619 ई.)
सवाई राजा का उपाधि प्राप्त करना: उदयसिंह की मृत्यु के बाद, अकबर ने उनके कई बड़े भाइयों के होते हुए भी शूरसिंह को मारवाड़ का शासक स्वीकार किया। 1604 ई. में अकबर ने उन्हें सवाई राजा की उपाधि दी और मनसब 2000 जात और 2000 सवार का पद दिया।
जहाँगीर द्वारा सम्मानित किया जाना: 1608 ई. में जहाँगीर ने शूरसिंह का मनसब बढ़ाकर 3000 जात और 3000 सवार कर दिया।
मेवाड़ अभियान में भाग लेना: 1613 ई. में, शूरसिंह शहजादा खुर्रम (शाहजहाँ) के मेवाड़ अभियान में भाग लिया।
मृत्यु: 1619 ई. में शूरसिंह की मृत्यु हो गई।
महाराजा गजसिंह (1619-1638 ई.)
गजसिंह का शासक बनना: शूरसिंह की मृत्यु के बाद, जहाँगीर ने उनके पुत्र गजसिंह को मारवाड़ का शासक नियुक्त किया और उन्हें 3000 जात और 2000 सवार का मनसब दिया। 1621 ई. में, गजसिंह को शहजादा खुर्रम के खिलाफ भेजा गया।
'दलथंभन' की उपाधि: जहाँगीर ने गजसिंह की वीरता से प्रसन्न होकर उन्हें 'दलथंभन' (फौज को रोकने वाला) की उपाधि दी और उनके घोड़े को शाही दाग से मुक्त कर दिया।
महाराजा की उपाधि: 1630 ई. में, गजसिंह को 'महाराजा' की उपाधि से नवाजा गया।
उत्तराधिकारी: गजसिंह का बड़ा पुत्र अमरसिंह था, लेकिन उन्होंने अपने छोटे पुत्र जसवंतसिंह को अपना उत्तराधिकारी घोषित किया।
राव अमरसिंह राठौड़
राज्य से निष्कासन: गजसिंह ने अपने बड़े पुत्र अमरसिंह को उसकी स्वतंत्र और विद्रोही प्रवृत्ति के कारण राज्य से निकाल दिया। इसके बाद, शाहजहाँ ने अमरसिंह को नागौर परगने का स्वतंत्र राजा बना दिया।
भतीरे की राड़ (1644): 1644 ई. में बीकानेर और जोधपुर के किसानों के बीच एक भूमि विवाद हुआ, जिसे लेकर सैनिकों के बीच झगड़ा हुआ और कई सैनिक मारे गए। यह घटना 'मतीरे की राड़' के नाम से प्रसिद्ध हुई।
सलावत खां की हत्या: 1644 ई. में, शाहजहाँ के साले सलावत खां ने अमरसिंह को "गंवार" कहकर अपमानित किया। इसके बाद, अमरसिंह ने सलावत खां की हत्या कर दी। इसके बाद, खलीमुल्ला और बिट्ठदास के पुत्र अर्जुन से युद्ध करते हुए अमरसिंह शहीद हो गए।
प्रसिद्ध वीरता: अमरसिंह राठौड़ राजकुमारों में अपनी वीरता और साहस के लिए प्रसिद्ध थे, और आज भी 'अमरसिंह राठौड़ के ख्याल' प्रसिद्ध हैं।
महाराजा जसवंतसिंह प्रथम (1638-1678 ई.)
जन्म और शुरुआती जीवन: महाराजा जसवंतसिंह का जन्म 26 दिसंबर 1626 ई. को बुरहानपुर में हुआ। वह मारवाड़ के शासक गजसिंह के पुत्र थे।
मुगल सम्राट शाहजहाँ द्वारा नियुक्ति: 1638 ई. में, शाहजहाँ ने जसवंतसिंह को 4000 जात और 4000 सवार का मनसब देकर मारवाड़ का शासक स्वीकार किया। इसके बाद उन्होंने अपनी राजधानी जोधपुर में अपनी गद्दी नशीनी का उत्सव मनाया।
मनसब का वृद्धि: आगरा में रस्म अदायगी के बाद, जसवंतसिंह को 1000 की वृद्धि कर 5000 जात और 5000 सवार का मनसब दिया गया। इसके बाद, उन्होंने दिल्ली और जमरुद की यात्रा की।
कंधार की लड़ाई (1648): जब शाह अब्बास ने कंधार को घेर लिया, तो महाराजा जसवंतसिंह को मुगल सेना के साथ कंधार भेजा गया, जहाँ उन्होंने वीरता का परिचय दिया। इसके बाद शाहजहाँ ने उनका मनसब बढ़ाकर 6000 जात और 6000 सवार कर दिया।
धरमत का युद्ध (1658)
उत्तराधिकार युद्ध: 1658-1659 के दौरान मुगल सम्राट शाहजहाँ के चारों पुत्रों के बीच उत्तराधिकार को लेकर युद्ध लड़े गए। इसमें धरमत (उज्जैन) का युद्ध महत्वपूर्ण रहा, जिसमें जसवंतसिंह और अन्य राजपूत शासकों ने दाराशिकोह के पक्ष में और औरंगजेब के विरोध में भाग लिया।
धोखा और हार: युद्ध में कासिम खान ने धोखा दिया, जिसके कारण शाही सेना की हार हुई। 19 अप्रैल, 1658 ई. को महाराजा जसवंतसिंह जोधपुर लौटे, जहां उन्हें महारानी महामाया द्वारा किले के द्वार बंद कर के सती होने की तैयारी की सूचना दी गई, क्योंकि उनके अनुसार राजपूत युद्ध से लौटते हैं या तो विजयी होते हैं या मारे जाते हैं।
कथा का विवाद: श्यामलदास ने इस घटना को मान्यता दी, लेकिन रेऊ का मानना है कि यह कथा राजपूत वीरांगनाओं की वीरता को बढ़ा-चढ़ा कर बताया गया है। उनकी राय में यह घटना महारानी सीसोदी से संबंधित हो सकती है, जो बूँदी के राव शत्रुशाल हाड़ा की रानी थीं, न कि उदयपुर की रानी से।
कथा का सत्यता: इस कथा के बारे में रेऊ का कहना था कि राजपूत वीरांगनाएँ कभी अपने पति के लिए ऐसी कल्पना नहीं करतीं, और ऐसी परिस्थितियों में यह कहानी सत्य से दूर हो सकती है।