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राठौड़ वंश विवरण

 

1. ऐतिहासिक पृष्ठभूमि

  • राजस्थान का पश्चिमोत्तर भाग प्राचीन काल में मरु प्रदेश कहलाता था, जो बाद में मारवाड़ बना।
  • गुर्जर प्रतिहार वंश के बाद राठौड़ वंश ने इस क्षेत्र पर शासन किया।
  • राठौड़ वंश का शासन राजस्थान के निर्माण तक जारी रहा।

2. 'राठौड़' नाम की उत्पत्ति

  • 'राठौड़' शब्द संस्कृत के "राष्ट्रकूट" से बना।
  • राष्ट्रकूट का प्राकृत रूप "रट्टऊड" है, जिससे "राडउड" या "राठौड़" शब्द विकसित हुआ।

3. राठौड़ों की उत्पत्ति के विभिन्न मत

  1. राज रत्नाकर

    • राठौड़ों को हिरण्यकश्यप की संतानों में से बताया गया।
  2. जोधपुर राज्य की ख्यात

    • राठौड़ों को राजा विश्वतमान के पुत्र राजा वृहदबल की संतान कहा गया।
  3. दयालदास री ख्यात

    • राठौड़ों को सूर्यवंशी और ब्राह्मण वंश के भल्लराव की संतानों में से बताया।
  4. राठौड़ वंश-महाकाव्य

    • राठौड़ों की उत्पत्ति शिव के शीश पर स्थित चंद्रमा से मानी गई।
  5. कर्नल टॉड

    • राठौड़ों को सूर्यवंशी कुल का बताया।

4. प्रमुख शाखाएँ

  • राजस्थान में राठौड़ों की विभिन्न शाखाएँ विख्यात हैं:
    • हस्तिकुण्ड के राठौड़
    • धनोप के राठौड़
    • वागड़ के राठौड़
    • जोधपुर और बीकानेर के राठौड़

5. जोधपुर के राठौड़ों की उत्पत्ति के दो मत

  1. पहला मत (नैणसी का विवरण)

    • 1194 ई. में चन्दावर के युद्ध में मुहम्मद गौरी ने कन्नौज के जयचन्द गहड़वाल को हराया।
    • जयचन्द के पौत्र सीहा ने 13वीं सदी में पाली के आसपास राठौड़ वंश की स्थापना की।
    • इस मत का समर्थन 'जोधपुर राज्य की ख्यात', 'पृथ्वीराज रासो', 'कर्नल टॉड', 'दयालदास री ख्यात' ने किया।
  2. दूसरा मत

    • जोधपुर के राठौड़ बदायूं की शाखा से थे, न कि कन्नौज की शाखा से।
    • यह मत सबसे पहले डॉ. हॉर्नली ने दिया।
    • डॉ. ओझा के अनुसार:
      • कन्नौज के गहड़वाल सूर्यवंशी थे।
      • बदायूं के राठौड़ चंद्रवंशी थे।
    • दोनों वंश भिन्न होने के कारण उनके बीच विवाह संबंध हो सकता था।

6. विद्वानों की राय

  • कैप्टन लुअर्ड, डॉ. रामशंकर त्रिपाठी, और हेमचन्द्र राय ने गहड़वालों और राठौड़ों को अलग वंश बताया।
  • बदायूं के राठौड़ संभवतः राजपूताना के वर्तमान राठौड़ों के वंशधर हैं।

7. बदायूं राज्य

  • कन्नौज में गहड़वाल शासन करते थे, तब राष्ट्रकूटों की एक शाखा बदायूं में राज्य करती थी।
  • इस राज्य का प्रवर्तक चन्द्र था।




जोधपुर के राठौड़ वंश का इतिहास 


1. राव सीहा (1240-1273 ई.)

  • स्थापना: राव सीहा ने 1240 ई. में पाली के आसपास मारवाड़ में राठौड़ वंश की स्थापना की।
  • वंशीय पृष्ठभूमि:
    • बीठू गांव (पाली) के 'देवल अभिलेख' के अनुसार राव सीहा, कुंवर सेतराम और सोलंकी वंश की रानी पार्वती का पुत्र था।
  • मृत्यु: 1273 ई. में मुसलमानों के विरुद्ध पाली प्रदेश की रक्षा करते हुए लाख झंवर युद्ध में मृत्यु।

2. राव आसथान (1273-1291 ई.)

  • कार्यकाल: राव आसथान ने 1273-91 ई. तक शासन किया।
  • महत्वपूर्ण घटना: जलालुद्दीन खिलजी को पाली से भगाने के लिए युद्ध किया, जिसमें उनकी मृत्यु हो गई।

3. राव धूहड़ (1291-1309 ई.)

  • धार्मिक योगदान:
    • राव धूहड़ ने राठौड़ों की कुलदेवी नागणेची माता की मूर्ति नागाणा गांव (बालोतरा जिले में पचपदरा) में स्थापित करवाई।

4. राव चूँडा (1395-1423 ई.)

  • वंशीय पृष्ठभूमि:
    • राव चूँडा, राव सीहा के वंशज वीरमदेव का पुत्र था।
  • राजनीतिक और सामरिक योगदान:
    • इंदा परिहार ने मण्डौर को मुसलमानों से छीनकर राव चूँडा को दहेज में दिया।
    • राव चूँडा ने मण्डौर को राठौड़ों की राजधानी बनाया।
    • सामंत प्रथा का संस्थापक माना जाता है।
    • अपने राज्य का विस्तार नाड़ौल, डीड़वाना और नागौर तक किया।
  • धार्मिक और सांस्कृतिक योगदान:
    • उनकी पत्नी चांदकवर ने चाँद बावड़ी का निर्माण करवाया।
  • संबंध:
    • अपनी पुत्री हंसाबाई का विवाह मेवाड़ के शासक राणा लाखा से किया।
  • उत्तराधिकार:
    • रानी किशोरी देवी (चौहान शासक राव मेघराज की पुत्री) के पुत्र कान्हा को उत्तराधिकारी बनाया।
    • कान्हा ने मात्र 11 महीने शासन किया और मृत्यु को प्राप्त हो गया।

5. सत्ता संघर्ष और रणमल का शासन

  • कान्हा की मृत्यु के बाद, राव चूँडा के 14 पुत्रों में से सत्ता जी शासक बने, लेकिन वे अंधे थे।
  • बाद में चूँडा के अन्य पुत्रों ने अपने ज्येष्ठ भाई रणमल को शासक घोषित कर दिया।





राव रणमल (1427-1438 ई.)


1. आरंभिक जीवन और महत्वाकांक्षा

  • राव चूँडा का ज्येष्ठ पुत्र होते हुए भी, राव रणमल को कान्हा के पक्ष में अपने अधिकार छोड़ने पड़े।
  • स्वभाव से महत्वाकांक्षी होने के कारण, उसने राजनीति में प्रभाव बढ़ाने के लिए अपनी बहन हंसाबाई का विवाह मेवाड़ के राणा लाखा से करवाया।

2. मेवाड़ की राजनीति में प्रभाव

  • हंसाबाई के पुत्र मोकल के अल्पवयस्क होने के कारण, मेवाड़ का शासन राणा लाखा के पुत्र चूँडा देख रहे थे।
  • राव रणमल ने इस स्थिति का लाभ उठाकर मेवाड़ की राजनीति में अपनी स्थिति मजबूत की।

3. मण्डौर पर अधिकार

  • 1426 ई. में राव रणमल ने मेवाड़ की सेना लेकर मण्डौर पर आक्रमण किया और इसे अपने अधिकार में ले लिया।

4. कुंभा के शासनकाल में प्रभाव

  • महाराणा मोकल और उनके बाद महाराणा कुंभा के अल्पवयस्क काल तक, मेवाड़ का शासन प्रभावी रूप से रणमल के हाथों में रहा।

5. अंत और मृत्यु

  • रणमल ने राघवदेव जैसे योग्य व्यक्ति की हत्या कर दी, जिससे उसके खिलाफ षड्यंत्र रचा गया।
  • 1438 ई. में षड्यंत्र के फलस्वरूप राव रणमल की हत्या कर दी गई।


राव जोधा (1438-1489 ई.)


1. प्रारंभिक संघर्ष

  • राव रणमल की हत्या के बाद, उसका पुत्र जोधा अपने साथियों के साथ मारवाड़ की ओर भागा।
  • उसने काहुँनी (बीकानेर) में शरण ली और वहां से शासन संभालने का प्रयास किया।

2. मण्डौर पर अधिकार

  • 1453 ई. में राव जोधा ने मण्डौर पर धावा बोल दिया और इसे जीत लिया।
  • मेवाड़ के आक्रमण से बचने के लिए उसने अपनी पुत्री श्रृंगार देवी का विवाह महाराणा कुंभा के पुत्र रायमल से कर संधि कर ली (आवल-बावल की संधि)।

3. सामंत प्रथा का विकास

  • जोधा ने अपने राज्य का विस्तार किया और अपने संबंधियों को वहां सामंत नियुक्त किया।
  • इसलिए, राव जोधा को मारवाड़ में सामंत प्रथा का वास्तविक संस्थापक कहा जाता है।

4. नई राजधानी की स्थापना

  • 1459 ई. में राव जोधा ने जोधपुर (सूर्य नगरी और नीली नगरी) को अपनी राजधानी बनाया।
  • राजधानी को सुरक्षित रखने के लिए चिड़िया टूक पहाड़ी पर नया दुर्ग बनवाया, जिसे मेहरानगढ़ कहा गया।

5. धार्मिक और सांस्कृतिक योगदान

  • राव जोधा की माता कोड़मदे ने बीकानेर में कोड़मदेसर बावड़ी का निर्माण करवाया।
  • रानी जसमादे हाड़ी ने रानीसर तालाब का निर्माण करवाया।

6. उत्तराधिकारी और मृत्यु

  • राव जोधा ने रानी जसमादे हाड़ी के प्रभाव में आकर अपने पुत्र सातलदेव को उत्तराधिकारी घोषित किया।
  • राव जोधा के ज्येष्ठ पुत्र कुँवर नींबा का निधन उनके जीवनकाल में ही हो गया।
  • लगभग 50 वर्षों के लंबे शासन के बाद, राव जोधा का निधन 1489 ई. में हुआ।
  • डॉ. ओझा ने राव जोधा को जोधपुर का पहला प्रतापी राजा कहा है।




राव सातल (1489-1492 ई.)

1. शासनकाल और उपलब्धियां

  • सातलमेर की स्थापना: राव सातल ने अपने नाम पर सातलमेर नगर की स्थापना की और ख्याति अर्जित की।
  • अजमेर के हाकिम मल्लूखाँ से संघर्ष:
    • 1490 ई. में मल्लूखाँ ने राव सातल के भाई वरसिंह को छलपूर्वक अजमेर बुलाकर बंदी बना लिया।
    • राव सातल ने राव बीका के साथ मिलकर अजमेर पर आक्रमण किया और मल्लूखाँ को विवश किया कि वह वरसिंह को मुक्त करे।

2. पीपाड़ का युद्ध

  • मल्लूखाँ ने बदला लेने के लिए मारवाड़ पर सैन्य अभियान चलाया।
  • राव सातल ने पीपाड़ के पास शत्रु का सामना किया और मल्लूखाँ को पराजित कर भागने पर मजबूर कर दिया।

3. कोसाना की घटना और घुड़ला त्यौहार

  • मल्लूखाँ के सेनापति मीर घड़ूला ने पीपाड़ में 140 सुहागिन स्त्रियों को पकड़कर कोसाना ले जाने का प्रयास किया।
  • राव सातल ने अपने भाइयों वरसिंह, दूदा, सूजा के साथ कोसाना में रात्रि के समय आक्रमण कर मीर घड़ूला को मार डाला और महिलाओं को मुक्त कराया।
  • इस घटना की स्मृति में जोधपुर में घुड़ला त्यौहार मनाया जाता है:
    • चैत्र कृष्ण अष्टमी से प्रारंभ होकर चैत्र शुक्ल तृतीया तक चलता है।
    • इसमें महिलाएं छिद्रित मटके में जलता दीपक रखकर नगर में घूमती हैं और तृतीया को मटका नष्ट कर देती हैं।

4. मृत्यु और परंपरा में परिवर्तन

  • पीपाड़ के युद्ध में राव सातल गंभीर रूप से घायल हुआ और उसकी मृत्यु 13 मार्च 1492 ई. (चैत्र शुक्ल तृतीया) को हो गई।
  • इस दिन पहले गौरी-ईश्वर दोनों की पूजा होती थी, लेकिन राव सातल की मृत्यु के बाद केवल गौरी की पूजा की परंपरा रह गई।

राव सूजा (1492-1515 ई.)

1. गद्दी संभालना और चुनौतियां

  • राव सातल की मृत्यु के बाद उसका छोटा भाई राव सूजा मारवाड़ का शासक बना।

2. राव बीका के साथ विवाद और संधि

  • राव जोधा ने बीकानेर के संस्थापक राव बीका से वादा किया था कि उनके तख्त, छत्र, तलवार, और अन्य पूजनीय वस्तुएं उसे दी जाएंगी।
  • राव सूजा ने यह वादा पूरा नहीं किया, जिससे राव बीका ने जोधपुर पर आक्रमण कर दिया।

3. संधि और पूजनीय वस्तुओं का हस्तांतरण

  • सूजा की माता जसमा दे की मध्यस्थता से संधि हुई।
  • बीका को पूजनीय वस्तुएं दी गईं, जिनमें शामिल थे:
    • जोधा की ढाल, तलवार, तख्त, छत्र, चंवर, कटार, हरिण्यगर्भ लक्ष्मीनारायण की मूर्ति।
    • 18 हाथ वाली नागणेची माता की मूर्ति।
    • भंवर ढोल, बैरिशाल नगाड़ा, दलसिंगार घोड़ा, भुजाई की देग।

4. शासन का अंत

  • राव सूजा ने अपने शासनकाल में राज्य को स्थिर करने का प्रयास किया और अपने पिता जोधा द्वारा स्थापित सामंती व्यवस्था को सुदृढ़ किया।
  • 1515 ई. में राव सूजा का निधन हुआ।


राव सातल (1489-1492 ई.)

राव जोधा के बाद राव सातल ने मारवाड़ के शासन की बागडोर संभाली। उन्होंने अपने शासनकाल में राठौड़ राज्य को सुदृढ़ बनाने का प्रयास किया।

  • सातलमेर का निर्माण: अपने नाम से सातलमेर नगर बसाकर ख्याति अर्जित की।
  • अजमेर पर आक्रमण:
    • 1490 ई. में अजमेर के हाकिम मल्लू खां ने सातल के भाई वरसिंह को छलपूर्वक बंदी बना लिया।
    • राव सातल ने राव बीका के साथ मिलकर अजमेर पर आक्रमण किया, जिससे मल्लू खां ने वरसिंह को रिहा कर दिया।
  • पीपाड़ का युद्ध:
    • मल्लू खां ने मारवाड़ पर सैन्य अभियान चलाया। राव सातल ने पीपाड़ के पास मल्लू खां को हराया।
    • कोसाना युद्ध: मल्लू खां का सेनापति मीर घडूला 140 सुहागिन स्त्रियों को बंदी बनाकर ले गया। राव सातल ने वरसिंह, दूदा, सूजा आदि के साथ रात में आक्रमण कर मीर घडूला को मार दिया और कन्याओं को मुक्त करवाया।
    • घुड़ला त्योहार: इस विजय के उपलक्ष्य में जोधपुर में घुड़ला त्योहार मनाया जाता है।

मृत्यु

  • पीपाड़ युद्ध में घायल राव सातल का 13 मार्च 1492 ई. (चैत्र शुक्ल तृतीया) को निधन हो गया।
  • इसके बाद मारवाड़ में इस दिन केवल गौरी पूजा की जाने लगी।

राव सूजा (1492-1515 ई.)

राव सातल की मृत्यु के बाद उनके छोटे भाई राव सूजा ने शासन संभाला।

  • बीकानेर विवाद:
    • राव जोधा ने राव बीका को राजचिह्न और अन्य पूजनीय वस्तुएं देने का वचन दिया था।
    • राव सूजा ने इन वस्तुओं को देने से इंकार किया।
    • राव बीका ने जोधपुर पर आक्रमण कर दिया, लेकिन जसमा दे की मध्यस्थता से संधि हुई और बीका को वस्तुएं वापस मिलीं।
    • इनमें जोधा की तलवार, छत्र, तख्त, नागणेची माता की मूर्ति, भंवर ढोल, और दलसिंगार घोड़ा शामिल थे।

राव गांगा (1515-1532 ई.)

राव सूजा के बाद उनके पौत्र राव गांगा ने शासन संभाला।

  • राणा सांगा से मित्रता:
    • राणा सांगा के साथ गठबंधन कर अपनी समस्याएं हल कीं।
    • 1527 ई. के खानवा युद्ध में अपने पुत्र राव मालदेव के नेतृत्व में 4000 सैनिक भेजे।
  • निर्माण कार्य:
    • जोधपुर में गांगालाव तालाब और गांगा की बावड़ी का निर्माण करवाया।
    • सिरोही से लाई गई श्यामजी की मूर्ति गंगश्याम के नाम से प्रसिद्ध हुई।

मृत्यु का विवाद

  • रेऊजी के अनुसार, अफीम की पिनक में महल की खिड़की से गिरकर मृत्यु।
  • डॉ. ओझा का मत: महत्वाकांक्षी पुत्र मालदेव ने जानबूझकर उन्हें खिड़की से गिरा दिया।
  • मुण्डियार ख्यात में उल्लेख है कि मालदेव ने राव गांगा के अंगरक्षकों पर भी हमला किया।

महत्व

राव गांगा का शासन मारवाड़ को स्थिरता देने और सांस्कृतिक योगदान के लिए प्रसिद्ध रहा। उनकी मृत्यु के बाद मारवाड़ का नेतृत्व उनके पुत्र राव मालदेव ने संभाला।






राव मालदेव (1532-1562 ई.)

राव मालदेव, राठौड़ वंश के सबसे प्रसिद्ध शासकों में से एक, अपने पिता राव गांगा की मृत्यु के बाद 5 जून 1532 को जोधपुर की गद्दी पर बैठे। उनका राज्याभिषेक सोजत में हुआ। प्रारंभ में उनका नियंत्रण केवल सोजत और जोधपुर के परगनों तक सीमित था।


विवाह और पारिवारिक विवाद

  • 1536 ई. में मालदेव का विवाह जैसलमेर के लूणकरण की पुत्री उम्मादे से हुआ।
  • किसी कारणवश लूणकरण ने मालदेव की हत्या का प्रयास किया, जिसकी जानकारी मालदेव को रानी लूणकरण द्वारा भिजवाई गई।
  • इससे मालदेव उम्मादे से अप्रसन्न हो गए, और रानी ‘रूठी रानी’ के नाम से विख्यात हुईं।
  • जब मालदेव का देहांत हुआ, उम्मादे सती हो गईं।

राजनीतिक विजय और विस्तार

  1. मेवाड़ की सहायता:

    • 1532 ई. में गुजरात के सुल्तान बहादुर शाह के मेवाड़ पर आक्रमण के समय मालदेव ने विक्रमादित्य की सहायता की।
    • राणा उदयसिंह को चित्तौड़ के सिंहासन पर बैठाने में सहयोग दिया।
    • इसके बदले महाराणा ने मालदेव को बसंतराय हाथी और चार लाख फीरोजे भेंट किए।
  2. भाद्राजूण पर अधिकार:

    • मालदेव ने भाद्राजूण (जालोर) के शासक सींधल स्वामी वीरा पर आक्रमण कर उसे पराजित किया।
  3. नागौर पर अधिकार:

    • नागौर के शासक दौलत खां ने मेड़ता पर अधिकार करना चाहा, जिससे मालदेव ने नागौर पर कब्जा कर लिया।
    • वीरम मांगलियोत को नागौर का हाकिम नियुक्त किया।
  4. मेड़ता और अजमेर पर अधिकार:

    • वीरमदेव और मालदेव के बीच का विवाद दरियाजोश हाथी के कारण बढ़ा।
    • मालदेव ने वीरमदेव को मेड़ता से खदेड़कर अजमेर पर अधिकार कर लिया।
    • वीरमदेव ने शेरशाह सूरी की शरण ली।
  5. सिवाणा पर अधिकार:

    • 1538 ई. में सिवाणा के शासक डूंगरजी (जैत मालोत) को हराकर सिवाणा पर कब्जा किया।
    • किले का प्रबंधन मांगलिया देवा को सौंपा।
  6. जालोर पर अधिकार:

    • जालोर के शासक सिकंदर खां को बंदी बनाया।
    • कैद में रहते हुए सिकंदर खां की मृत्यु हो गई।

महत्व और प्रभाव

  • राव मालदेव ने अपने कुशल नेतृत्व और सैन्य शक्ति के बल पर मारवाड़ को एक शक्तिशाली राज्य के रूप में स्थापित किया।
  • उनके शासनकाल में मारवाड़ का क्षेत्रीय विस्तार हुआ और राज्य प्रशासन को सुदृढ़ बनाया गया।





मेवाड़-मारवाड़ के बीच टकराव

स्वरूपदे और वीरबाई का विवाद

  • मेवाड़ के जैतसिंह ने मारवाड़ आकर मालदेव राठौड़ से सहायता ली। मालदेव ने उन्हें खैरवा की जागीर प्रदान की।
  • आभार स्वरूप जैतसिंह ने अपनी बड़ी पुत्री स्वरूपदे का विवाह मालदेव राठौड़ से किया।
  • जब मालदेव अपने ससुराल खैरवा गए, तो उन्होंने जैतसिंह की छोटी पुत्री वीरबाई झाली को देखकर उसका विवाह भी स्वयं से करने की इच्छा व्यक्त की।
  • इसे जैतसिंह ने अपना अपमान समझा और वीरबाई का विवाह मेवाड़ के शासक उदयसिंह से कर दिया।
  • इस अपमान का बदला लेने के लिए मालदेव ने कुंभलगढ़ पर आक्रमण किया, लेकिन दुर्ग की मजबूती और लंबे घेराव के बावजूद इसे जीतने में असफल रहे।

पहोबा/साहेबा का युद्ध (1542 ई.)

  • मालदेव ने अपने साम्राज्य का विस्तार करने के लिए कूपा के नेतृत्व में बीकानेर की ओर एक बड़ी सेना भेजी।
  • बीकानेर के शासक राव जैतसी ने साहेबा के मैदान में मालदेव की सेना का सामना किया।
  • युद्ध में राव जैतसी वीरगति को प्राप्त हुए, और मालदेव ने बीकानेर पर विजय प्राप्त की।
  • हालांकि, इस युद्ध ने जैसलमेर, मेवाड़ और बीकानेर के साथ मालदेव के संबंधों को और अधिक खराब कर दिया।

मालदेव और हुमायूँ

  • बाबर के बाद 1530 में हुमायूँ मुगल सम्राट बना।
  • हुमायूँ ने 1539 के चौसा के युद्ध में अफगान शासक शेरशाह सूरी से पहली बार हार का सामना किया।
  • चौसा का युद्ध इतिहास में पहली घटना थी जब अफगानों ने मुगलों को पराजित किया।
  • 1540 में कन्नौज के युद्ध में शेरशाह ने हुमायूँ को निर्णायक रूप से हराकर उसे दर-दर भटकने पर मजबूर कर दिया।
  • इस दौरान मालदेव ने अपनी स्थिति को मजबूत करने और साम्राज्य विस्तार पर ध्यान केंद्रित किया।

सारांश

राव मालदेव के शासनकाल में उनकी महत्वाकांक्षाओं ने मारवाड़ को एक शक्तिशाली राज्य बना दिया, लेकिन उनके आक्रामक रवैये ने कई शत्रु पैदा किए। वीरता और विस्तार के बावजूद, उनके व्यक्तिगत और राजनीतिक निर्णयों ने कई महत्वपूर्ण गठबंधनों को कमजोर कर दिया।


राव मालदेव और शेरशाह का टकराव

  • मेड़ता के वीरमदेव और बीकानेर के कल्याणमल के उकसावे तथा हुमायूँ को शरण देने के प्रयास के कारण शेरशाह सूरी ने मालदेव के खिलाफ सैन्य अभियान चलाया।
  • शेरशाह को भय था कि मालदेव जैसे शक्तिशाली शासक के नेतृत्व में राजपूत एकजुट हो सकते हैं।
  • शेरशाह ने 80,000 सैनिकों के साथ मारवाड़ पर चढ़ाई की। मालदेव के पास भी लगभग 50,000 से 80,000 सैनिक थे।

गिरि-सुमेल का युद्ध (1544 ई.)

  • शेरशाह और मालदेव के बीच युद्ध जैतारण (ब्यावर) के पास गिरि-सुमेल नामक स्थान पर हुआ।
  • शेरशाह ने मालदेव के सेनानायकों जैता और कूँपा के शिविरों में धन भेजकर मालदेव को उनके खिलाफ भड़काया।
  • मालदेव ने अपने विश्वस्त सेनानायकों पर विश्वास न कर उन्हें छोड़ दिया और अपनी सेना के आधे भाग के साथ पीछे हट गया।
  • जैता और कूँपा ने अपनी सेना के साथ वीरता से लड़ाई की लेकिन वे शेरशाह की विशाल सेना के आगे वीरगति को प्राप्त हुए।
  • युद्ध के बाद शेरशाह ने कहा, "अगर एक भुठ्ठी भर बाजरे के लिए मुझे इतना संघर्ष करना पड़ा, तो मैं हिंदुस्तान की बादशाहत भी खो सकता था।"

शेरशाह का जोधपुर पर अधिकार

  • युद्ध के बाद शेरशाह ने अपनी सेना को दो भागों में विभाजित किया।
    • एक भाग खवास खाँ और ईसाखाँ के नेतृत्व में जोधपुर भेजा गया।
    • दूसरा भाग शेरशाह के नेतृत्व में अजमेर पर चढ़ाई के लिए गया।
  • शेरशाह ने अजमेर और जोधपुर पर अधिकार कर लिया।
  • जोधपुर का प्रशासन खवास खाँ को सौंपा गया।

मालदेव का पुनः जोधपुर पर अधिकार

  • शेरशाह की 1545 ई. में कालिंजर अभियान के दौरान उक्का नामक अस्त्र चलाते समय मृत्यु हो गई।
  • इसके बाद मालदेव ने जोधपुर पर पुनः अधिकार कर लिया।
  • शेरशाह का जोधपुर पर एक वर्ष तक नियंत्रण रहा।

राव मालदेव की उपलब्धियाँ और मृत्यु

  • राव मालदेव ने अपने जीवनकाल में 52 युद्ध लड़े और सबसे अधिक 58 परगनों पर शासन किया।
  • उन्होंने राजपूत शक्ति को पुनः संगठित किया और मारवाड़ को एक सशक्त राज्य बनाया।
  • 7 नवंबर 1562 ई. को उनका निधन हुआ।

सारांशराव चंद्रसेन का जीवन (1562-1581 ई.)

  • जन्म और परिवार:

    • राव चंद्रसेन का जन्म 16 जुलाई 1541 को हुआ।
    • वे राव मालदेव और रानी स्वरूप दे के पुत्र थे।
    • स्वरूप दे ने चंद्रसेन को युवराज बनवाया, जबकि राव मालदेव अपने बड़े बेटे राम से अप्रसन्न थे।
  • राज्याभिषेक और प्रारंभिक संघर्ष:

    • राव मालदेव की मृत्यु के बाद, चंद्रसेन ने 31 दिसम्बर 1562 को जोधपुर की गद्दी संभाली।
    • शासक बनने के कुछ समय बाद चंद्रसेन ने एक चाकर की हत्या कर दी, जिससे सरदार नाराज हो गए।
    • नाराज सरदारों ने चंद्रसेन के खिलाफ गठबंधन कर लिया और आक्रमण की योजना बनाई।
  • लोहावट का युद्ध:

    • उदयसिंह ने चंद्रसेन से लोहावट में युद्ध किया।
    • चंद्रसेन ने उदयसिंह को घायल किया और युद्ध में विजय प्राप्त की।
    • इस युद्ध में उदयसिंह के कई प्रमुख सहयोगी मारे गए।
  • अकबर का जोधपुर पर कब्जा:

    • 1564 में चंद्रसेन का सौतेला भाई राम अकबर के दरबार में गया और शाही सहायता की मांग की।
    • अकबर ने एक सेना भेजी और जोधपुर पर कब्जा कर लिया।
    • चंद्रसेन ने भाद्राजूण के किले की ओर रुख किया।
  • नागौर दरबार (1570 ई.):

    • 1570 में अकबर ने अजमेर यात्रा के दौरान नागौर में दुष्काल राहत के लिए शुक्र तालाब खुदवाया।
    • अकबर ने मेवाड़ और अन्य राजपूत नरेशों से वैवाहिक संबंध जोड़े।
    • राव चंद्रसेन ने अकबर के दरबार में बैठकर देखा कि अकबर दरबार में एक व्यक्ति को दूसरे के खिलाफ खड़ा कर अपना स्वार्थ सिद्ध करता है, इसलिये वह वापस लौट आया।
  • मारवाड़ की राजनीतिक स्थिति:

    • नागौर दरबार के बाद, मारवाड़ की राजनीतिक स्थिति स्पष्ट हो गई।
    • अकबर ने रायसिंह को जोधपुर का अधिकारी नियुक्त किया।
    • अकबर ने उदयसिंह को सामावली पर अधिकार दिया और राम को शाही सेना के साथ कर दिया।
    • इस प्रकार, अकबर ने जोधपुर पर शाही अधिकार स्थापित किया और मारवाड़ को अपने अधीन कर लिया।

सारांश:

राव चंद्रसेन का शासन काल संघर्षों से भरा रहा। उन्होंने अपने राज्य की रक्षा के लिए कई युद्ध लड़े, लेकिन अकबर की कूटनीति के कारण मारवाड़ धीरे-धीरे मुगलों के प्रभाव में आ गया। नागौर दरबार ने मारवाड़ की परतंत्रता की स्थिति को और मजबूती से स्थापित किया।

राव मालदेव एक वीर और महत्वाकांक्षी शासक थे, लेकिन उनके आत्मसम्मान और संदेह ने कई बार उनके सहयोगियों को उनसे दूर कर दिया। गिरि-सुमेल के युद्ध में उनकी हार राजपूतों की एकजुटता की कमी और शेरशाह की कूटनीति का परिणाम थी। फिर भी, उनका शासनकाल मारवाड़ के इतिहास में गौरवपूर्ण अध्याय के रूप में जाना जाता है।



राव चंद्रसेन का जीवन और संघर्ष (1562-1581 ई.)

  • भाद्राजूण से सिवाना तक का संघर्ष:

    • राव चंद्रसेन ने भाद्राजूण में मुगलों के खिलाफ संघर्ष जारी रखा, लेकिन जब मुगलों ने चारों ओर से घेर लिया, तो 1571 ई. में उन्होंने भाद्राजूण छोड़कर सिवाना की ओर रुख किया।
    • 1573 ई. में अकबर ने चंद्रसेन को अधीन करने के लिए शाहकुली खाँ के नेतृत्व में सेना भेजी, जो सोजत में चंद्रसेन के भतीजे कल्ला को पराजित कर सिवाना पहुँची।
  • सिवाना का संघर्ष और पहाड़ी युद्ध:

    • चंद्रसेन ने सिवाना के दुर्ग की रक्षा का जिम्मा पत्ता राठौड़ को सौंपकर पहाड़ी इलाकों में छापामार युद्ध शुरू कर दिया।
    • 1575 ई. में सिवाना का दुर्ग मुगलों के कब्जे में आ गया, लेकिन चंद्रसेन ने संघर्ष जारी रखा और मुगलों को नुकसान पहुँचाया।
  • पोकरण का समझौता:

    • 1575 ई. में रावल हरराय ने पोकरण पर आक्रमण किया। चार माह तक घेराबंदी के बाद राव चंद्रसेन ने एक समझौता किया।
    • रावल हरराय ने प्रस्ताव दिया कि “एक लाख फदिये के बदले मुझे पोकरण दे दो, जोधपुर पर कब्जा होने के बाद यह एक लाख फदिये वापिस ले लेना”।
    • चंद्रसेन ने यह प्रस्ताव स्वीकार कर जनवरी 1576 ई. में पोकरण भाटियों को सौंप दिया।
  • सरवाड़ और अजमेर पर आक्रमण:

    • 1579 ई. में चंद्रसेन ने सरवाड़ के मुगली थाने को लूटकर अपने अधिकार में ले लिया।
    • इसके बाद उसने अजमेर प्रांत पर भी आक्रमण शुरू कर दिए।
  • सोजत पर हमला और मृत्यु:

    • 7 जुलाई 1580 ई. को चंद्रसेन ने सोजत पर हमला कर उसे अपने नियंत्रण में ले लिया और सरण पर्वत (पाली) में सचियाप नामक स्थान पर अपना निवास बनाया।
    • 11 जनवरी 1581 ई. को उनकी मृत्यु हुई। जोधपुर राज्य की ख्यात के अनुसार, एक सामंत वैरसल ने विश्वासघात करते हुए उन्हें जहर दिया, जिसके कारण उनकी मृत्यु हुई।
  • चंद्रसेन की विरासत:

    • राव चंद्रसेन को मारवाड़ का भूला-बिसरा नायक कहा जाता है। वे अकबरकालीन राजस्थान के पहले स्वतंत्र शासक थे, जिन्होंने अपनी रणनीति में दुर्ग की बजाय जंगल और पहाड़ी इलाकों को महत्व दिया।
    • वे छापामार युद्ध के महत्वपूर्ण प्रवर्तक थे, और उनके बाद महाराणा प्रताप ने भी इसी प्रणाली को अपनाया।
    • राव चंद्रसेन को 'मारवाड़ का प्रताप' भी कहा जाता है और वे महाराणा प्रताप के पथ प्रदर्शक माने जाते हैं।
  • अकबर से संघर्ष:

    • राव चंद्रसेन, महाराणा प्रताप के साथ मिलकर अकबर की अधीनता स्वीकार नहीं करने वाले दो प्रमुख राजपूत शासकों में से एक थे।
    • राव चंद्रसेन और महाराणा प्रताप ने अपने स्वाभिमान की रक्षा के लिए अकबर के खिलाफ संघर्ष किया और कष्टों का मार्ग अपनाया।

सारांश:

राव चंद्रसेन एक वीर और स्वाभिमानी शासक थे जिन्होंने अकबर के खिलाफ निरंतर संघर्ष किया और स्वाधीनता की रक्षा के लिए छापामार युद्ध प्रणाली का पालन किया। उनके संघर्षों और स्वतंत्रता के प्रति समर्पण ने उन्हें राजस्थान के महान नायकों में स्थान दिलाया।


मोटाराजा उदयसिंह (1583-1595 ई.)

  • जोधपुर राज्य का अधीनता स्वीकारना: राव चंद्रसेन की मृत्यु के बाद जोधपुर राज्य 1581-1583 तक मुगलों के अधीन नहीं था, लेकिन 1583 में अकबर ने उदयसिंह को मारवाड़ का शासक नियुक्त किया और उन्हें खिलअत (सम्मान) और खिताब से नवाजा। इसके साथ ही, वे मारवाड़ के पहले शासक बने जिन्होंने मुगलों की अधीनता स्वीकार की।

  • शहजादा सलीम के साथ वैवाहिक संबंध: 1587 ई. में, उदयसिंह ने अपनी पुत्री मानबाई का विवाह शहजादा सलीम (जो बाद में जहाँगीर के नाम से प्रसिद्ध हुए) से किया। इस विवाह के बाद, उदयसिंह को 1000 का मनसब (पद) दिया गया। यह पहला अवसर था जब जोधपुर के शासक ने मुगलों से वैवाहिक संबंध स्थापित किया। इस विवाह से शहजादा खुर्रम (शाहजहाँ) का जन्म हुआ, जो बाद में मुगल सम्राट बने।


सवाई राजा शूरसिंह (1595-1619 ई.)

  • सवाई राजा का उपाधि प्राप्त करना: उदयसिंह की मृत्यु के बाद, अकबर ने उनके कई बड़े भाइयों के होते हुए भी शूरसिंह को मारवाड़ का शासक स्वीकार किया। 1604 ई. में अकबर ने उन्हें सवाई राजा की उपाधि दी और मनसब 2000 जात और 2000 सवार का पद दिया।

  • जहाँगीर द्वारा सम्मानित किया जाना: 1608 ई. में जहाँगीर ने शूरसिंह का मनसब बढ़ाकर 3000 जात और 3000 सवार कर दिया।

  • मेवाड़ अभियान में भाग लेना: 1613 ई. में, शूरसिंह शहजादा खुर्रम (शाहजहाँ) के मेवाड़ अभियान में भाग लिया।

  • मृत्यु: 1619 ई. में शूरसिंह की मृत्यु हो गई।


महाराजा गजसिंह (1619-1638 ई.)

  • गजसिंह का शासक बनना: शूरसिंह की मृत्यु के बाद, जहाँगीर ने उनके पुत्र गजसिंह को मारवाड़ का शासक नियुक्त किया और उन्हें 3000 जात और 2000 सवार का मनसब दिया। 1621 ई. में, गजसिंह को शहजादा खुर्रम के खिलाफ भेजा गया।

  • 'दलथंभन' की उपाधि: जहाँगीर ने गजसिंह की वीरता से प्रसन्न होकर उन्हें 'दलथंभन' (फौज को रोकने वाला) की उपाधि दी और उनके घोड़े को शाही दाग से मुक्त कर दिया।

  • महाराजा की उपाधि: 1630 ई. में, गजसिंह को 'महाराजा' की उपाधि से नवाजा गया।

  • उत्तराधिकारी: गजसिंह का बड़ा पुत्र अमरसिंह था, लेकिन उन्होंने अपने छोटे पुत्र जसवंतसिंह को अपना उत्तराधिकारी घोषित किया।


राव अमरसिंह राठौड़

  • राज्य से निष्कासन: गजसिंह ने अपने बड़े पुत्र अमरसिंह को उसकी स्वतंत्र और विद्रोही प्रवृत्ति के कारण राज्य से निकाल दिया। इसके बाद, शाहजहाँ ने अमरसिंह को नागौर परगने का स्वतंत्र राजा बना दिया।

  • भतीरे की राड़ (1644): 1644 ई. में बीकानेर और जोधपुर के किसानों के बीच एक भूमि विवाद हुआ, जिसे लेकर सैनिकों के बीच झगड़ा हुआ और कई सैनिक मारे गए। यह घटना 'मतीरे की राड़' के नाम से प्रसिद्ध हुई।

  • सलावत खां की हत्या: 1644 ई. में, शाहजहाँ के साले सलावत खां ने अमरसिंह को "गंवार" कहकर अपमानित किया। इसके बाद, अमरसिंह ने सलावत खां की हत्या कर दी। इसके बाद, खलीमुल्ला और बिट्ठदास के पुत्र अर्जुन से युद्ध करते हुए अमरसिंह शहीद हो गए।

  • प्रसिद्ध वीरता: अमरसिंह राठौड़ राजकुमारों में अपनी वीरता और साहस के लिए प्रसिद्ध थे, और आज भी 'अमरसिंह राठौड़ के ख्याल' प्रसिद्ध हैं।



मोटाराजा उदयसिंह (1583-1595 ई.)

  • जोधपुर राज्य का अधीनता स्वीकारना: राव चंद्रसेन की मृत्यु के बाद जोधपुर राज्य 1581-1583 तक मुगलों के अधीन नहीं था, लेकिन 1583 में अकबर ने उदयसिंह को मारवाड़ का शासक नियुक्त किया और उन्हें खिलअत (सम्मान) और खिताब से नवाजा। इसके साथ ही, वे मारवाड़ के पहले शासक बने जिन्होंने मुगलों की अधीनता स्वीकार की।

  • शहजादा सलीम के साथ वैवाहिक संबंध: 1587 ई. में, उदयसिंह ने अपनी पुत्री मानबाई का विवाह शहजादा सलीम (जो बाद में जहाँगीर के नाम से प्रसिद्ध हुए) से किया। इस विवाह के बाद, उदयसिंह को 1000 का मनसब (पद) दिया गया। यह पहला अवसर था जब जोधपुर के शासक ने मुगलों से वैवाहिक संबंध स्थापित किया। इस विवाह से शहजादा खुर्रम (शाहजहाँ) का जन्म हुआ, जो बाद में मुगल सम्राट बने।


सवाई राजा शूरसिंह (1595-1619 ई.)

  • सवाई राजा का उपाधि प्राप्त करना: उदयसिंह की मृत्यु के बाद, अकबर ने उनके कई बड़े भाइयों के होते हुए भी शूरसिंह को मारवाड़ का शासक स्वीकार किया। 1604 ई. में अकबर ने उन्हें सवाई राजा की उपाधि दी और मनसब 2000 जात और 2000 सवार का पद दिया।

  • जहाँगीर द्वारा सम्मानित किया जाना: 1608 ई. में जहाँगीर ने शूरसिंह का मनसब बढ़ाकर 3000 जात और 3000 सवार कर दिया।

  • मेवाड़ अभियान में भाग लेना: 1613 ई. में, शूरसिंह शहजादा खुर्रम (शाहजहाँ) के मेवाड़ अभियान में भाग लिया।

  • मृत्यु: 1619 ई. में शूरसिंह की मृत्यु हो गई।


महाराजा गजसिंह (1619-1638 ई.)

  • गजसिंह का शासक बनना: शूरसिंह की मृत्यु के बाद, जहाँगीर ने उनके पुत्र गजसिंह को मारवाड़ का शासक नियुक्त किया और उन्हें 3000 जात और 2000 सवार का मनसब दिया। 1621 ई. में, गजसिंह को शहजादा खुर्रम के खिलाफ भेजा गया।

  • 'दलथंभन' की उपाधि: जहाँगीर ने गजसिंह की वीरता से प्रसन्न होकर उन्हें 'दलथंभन' (फौज को रोकने वाला) की उपाधि दी और उनके घोड़े को शाही दाग से मुक्त कर दिया।

  • महाराजा की उपाधि: 1630 ई. में, गजसिंह को 'महाराजा' की उपाधि से नवाजा गया।

  • उत्तराधिकारी: गजसिंह का बड़ा पुत्र अमरसिंह था, लेकिन उन्होंने अपने छोटे पुत्र जसवंतसिंह को अपना उत्तराधिकारी घोषित किया।


राव अमरसिंह राठौड़

  • राज्य से निष्कासन: गजसिंह ने अपने बड़े पुत्र अमरसिंह को उसकी स्वतंत्र और विद्रोही प्रवृत्ति के कारण राज्य से निकाल दिया। इसके बाद, शाहजहाँ ने अमरसिंह को नागौर परगने का स्वतंत्र राजा बना दिया।

  • भतीरे की राड़ (1644): 1644 ई. में बीकानेर और जोधपुर के किसानों के बीच एक भूमि विवाद हुआ, जिसे लेकर सैनिकों के बीच झगड़ा हुआ और कई सैनिक मारे गए। यह घटना 'मतीरे की राड़' के नाम से प्रसिद्ध हुई।

  • सलावत खां की हत्या: 1644 ई. में, शाहजहाँ के साले सलावत खां ने अमरसिंह को "गंवार" कहकर अपमानित किया। इसके बाद, अमरसिंह ने सलावत खां की हत्या कर दी। इसके बाद, खलीमुल्ला और बिट्ठदास के पुत्र अर्जुन से युद्ध करते हुए अमरसिंह शहीद हो गए।

  • प्रसिद्ध वीरता: अमरसिंह राठौड़ राजकुमारों में अपनी वीरता और साहस के लिए प्रसिद्ध थे, और आज भी 'अमरसिंह राठौड़ के ख्याल' प्रसिद्ध हैं।


महाराजा जसवंतसिंह प्रथम (1638-1678 ई.)

  • जन्म और शुरुआती जीवन: महाराजा जसवंतसिंह का जन्म 26 दिसंबर 1626 ई. को बुरहानपुर में हुआ। वह मारवाड़ के शासक गजसिंह के पुत्र थे।

  • मुगल सम्राट शाहजहाँ द्वारा नियुक्ति: 1638 ई. में, शाहजहाँ ने जसवंतसिंह को 4000 जात और 4000 सवार का मनसब देकर मारवाड़ का शासक स्वीकार किया। इसके बाद उन्होंने अपनी राजधानी जोधपुर में अपनी गद्दी नशीनी का उत्सव मनाया।

  • मनसब का वृद्धि: आगरा में रस्म अदायगी के बाद, जसवंतसिंह को 1000 की वृद्धि कर 5000 जात और 5000 सवार का मनसब दिया गया। इसके बाद, उन्होंने दिल्ली और जमरुद की यात्रा की।

  • कंधार की लड़ाई (1648): जब शाह अब्बास ने कंधार को घेर लिया, तो महाराजा जसवंतसिंह को मुगल सेना के साथ कंधार भेजा गया, जहाँ उन्होंने वीरता का परिचय दिया। इसके बाद शाहजहाँ ने उनका मनसब बढ़ाकर 6000 जात और 6000 सवार कर दिया।


धरमत का युद्ध (1658)

  • उत्तराधिकार युद्ध: 1658-1659 के दौरान मुगल सम्राट शाहजहाँ के चारों पुत्रों के बीच उत्तराधिकार को लेकर युद्ध लड़े गए। इसमें धरमत (उज्जैन) का युद्ध महत्वपूर्ण रहा, जिसमें जसवंतसिंह और अन्य राजपूत शासकों ने दाराशिकोह के पक्ष में और औरंगजेब के विरोध में भाग लिया।

  • धोखा और हार: युद्ध में कासिम खान ने धोखा दिया, जिसके कारण शाही सेना की हार हुई। 19 अप्रैल, 1658 ई. को महाराजा जसवंतसिंह जोधपुर लौटे, जहां उन्हें महारानी महामाया द्वारा किले के द्वार बंद कर के सती होने की तैयारी की सूचना दी गई, क्योंकि उनके अनुसार राजपूत युद्ध से लौटते हैं या तो विजयी होते हैं या मारे जाते हैं

  • कथा का विवाद: श्यामलदास ने इस घटना को मान्यता दी, लेकिन रेऊ का मानना है कि यह कथा राजपूत वीरांगनाओं की वीरता को बढ़ा-चढ़ा कर बताया गया है। उनकी राय में यह घटना महारानी सीसोदी से संबंधित हो सकती है, जो बूँदी के राव शत्रुशाल हाड़ा की रानी थीं, न कि उदयपुर की रानी से।

  • कथा का सत्यता: इस कथा के बारे में रेऊ का कहना था कि राजपूत वीरांगनाएँ कभी अपने पति के लिए ऐसी कल्पना नहीं करतीं, और ऐसी परिस्थितियों में यह कहानी सत्य से दूर हो सकती है।