वंश की उत्पत्ति:
- कछवाहा वंश को भगवान राम के पुत्र कुश का वंशज माना जाता है।
- कुश के वंशज पहले मुकुटपुर, फिर साकेत और रोहिताश पर शासन करते थे।
- राजा नल ने 826 ई. में नश्वर (नरवर, ग्वालियर) की नींव रखी।
ढोला-मारू कथा:
- नल के पुत्र साल्हकुमार (ढोला) का विवाह पंवार राजा पिंगल की पुत्री मरवण (मारू) से हुआ।
- यह कथा "ढोला-मारू" के नाम से प्रसिद्ध है।
दुल्हाराय का उदय:
- नल की 21वीं पीढ़ी में दुल्हाराय (तेजकरण) हुए।
- दुल्हाराय ने दौसा में चौहानों के सहयोग से बड़गुर्जरों को पराजित किया और शासन स्थापित किया।
रामगढ़ की स्थापना:
- दुल्हाराय ने मीणाओं को हराकर मांची (मांझी) को जीता और इसे रामगढ़ नाम दिया।
- यहां उन्होंने अपनी कुलदेवी जमवाय माता का मंदिर बनवाया।
आमेर की स्थापना:
- दुल्हाराय और मारूणी के पुत्र कोकिल देव ने मीणाओं से आमेर को जीतकर इसे राजधानी बनाया।
- कोकिल देव ने 1207 ई. में आमेर को राजधानी बनाया (कुछ स्रोतों में 1035 ई.)।
महत्त्वपूर्ण घटनाएँ और शासक:
- कछवाहा शासक पंचवनदेव पृथ्वीराज चौहान तृतीय के समकालीन थे।
- महाराणा कुंभा के समय आमेर मेवाड़ की करद रियासत बन गई।
- पृथ्वीराज कछवाहा ने खानवा के युद्ध (1527 ई.) में राणा सांगा के साथ भाग लिया।
- पृथ्वीराज ने अपने राज्य को 12 भागों में बांटकर "बारह कोटड़ी" व्यवस्था लागू की।
- पृथ्वीराज की पत्नी बाला बाई को "आमेर की मीरां" कहा जाता है।
वंशीय विवाद और उत्तराधिकार:
- पृथ्वीराज ने अपनी पत्नी बालाबाई के प्रभाव में अपने छोटे पुत्र पूर्णमल को उत्तराधिकारी घोषित किया।
- ज्येष्ठ पुत्र भीमदेव ने पूर्णमल को हराकर स्वयं को शासक घोषित किया और 1533-1536 ई. तक शासन किया।
भीमदेव और उत्तराधिकारी:
- भीमदेव के बाद उसका पुत्र रत्नसिंह शासक बना।
- रत्नसिंह ने अफगान शासक शेरशाह सूरी की अधीनता स्वीकार की (1544 ई.)।
- यह राजस्थान का पहला शासक था जिसने अफगानों की अधीनता स्वीकार की।
विशेष उपमाएँ:
- आमेर की मीरां: बालाबाई
- बागड़ की मीरां: गवरीबाई
- राजस्थान की दूसरी मीरां: रानाबाई
- राजस्थान की राधा: मीरांबाई
अन्य जानकारी:
- कछवाहा वंश की कुलदेवी: शिला माता।
- जमवारामगढ़ की स्थापना: दुल्हाराय ने जमवाय माता के मंदिर के कारण की।
आमेर के शासक भारमल का शासनकाल (1547-1574 ई.) - मुख्य बिंदु:
रत्नसिंह की मृत्यु और सत्ता संघर्ष:
- रत्नसिंह के समय उसके चाचा सांगा ने मोजमाबाद क्षेत्र पर अधिकार कर अपने नाम पर सांगानेर बसाया।
- सांगा की मृत्यु के बाद उसका छोटा भाई भारमल, रत्नसिंह से वैमनस्य रखने लगा।
- भारमल ने रत्नसिंह के छोटे भाई आसकरण को अपने पक्ष में कर लिया।
- आसकरण ने रत्नसिंह को विष देकर मार डाला और स्वयं को शासक घोषित किया।
- बाद में भारमल ने आसकरण से विश्वासघात कर उसे पदच्युत कर दिया और स्वयं को शासक घोषित कर दिया।
भारमल और आसकरण का संघर्ष:
- आसकरण इस्लामशाह (शेरशाह सूरी का पुत्र) की शरण में चला गया।
- इस्लामशाह ने भारमल के विरुद्ध हाजी खाँ को नियुक्त किया।
- भारमल ने हाजी खाँ को अपने पक्ष में कर लिया और आसकरण को नरवर (मध्य प्रदेश) की रियासत देकर संतुष्ट किया।
अकबर से पहला संपर्क (1556 ई.):
- भारमल ने सर्वप्रथम मजनूं खाँ (नारनौल के अधिकारी) की सहायता से दिल्ली में अकबर से मुलाकात की।
आमेर पर आक्रमण (1558 ई.):
- पूर्णमल का पुत्र सूजा ने मेवात के सूबेदार मिर्जा सफुद्दीन से मिलकर आमेर पर हमला किया।
- भारमल पहाड़ों में छिपने के लिए विवश हुआ।
- 1561 ई. में सफुद्दीन आमेर आया और भारमल को बड़ी धनराशि देने के लिए मजबूर किया।
- सफुद्दीन ने भारमल के पुत्र जगन्नाथ, आसकरण के पुत्र राजसिंह, और जोबनेर के खगार को धरोहर के रूप में अपने पास रख लिया।
अकबर की अधीनता (1562 ई.):
- भारमल ने अकबर की अधीनता स्वीकार की।
- 20 जनवरी 1562 ई. को सांगानेर में अकबर से मुलाकात की।
- अकबर के आदेश पर सफुद्दीन ने भारमल के संबंधियों और सरदारों को मुक्त कर दिया।
हरकाबाई का विवाह (1562 ई.):
- 6 फरवरी 1562 ई. को सांभर में भारमल ने अपनी पुत्री हरकाबाई (शाहीबाई/यौद्धाबाई) का विवाह अकबर से किया।
- अकबर ने हरकाबाई को "मरियम उज जमानी" की उपाधि दी।
- हरकाबाई ने सलीम (जहांगीर) को जन्म दिया।
- भारमल पहला राजपूत शासक था जिसने मुगलों की अधीनता स्वीकार कर वैवाहिक संबंध स्थापित किए।
नागौर दरबार (1570 ई.):
- भारमल के सहयोग से अकबर ने नागौर में दरबार का आयोजन किया।
अकबर द्वारा उपाधियाँ:
- अकबर ने भारमल को "अमीर उल-उमरा" की उपाधि दी।
- भारमल को 5000 मनसब प्रदान किया।
भगवानदास / भगवंत दास (1574-1589 ई.) - मुख्य बिंदु:
अकबर द्वारा उपाधि और पद:
- भारमल की मृत्यु के बाद अकबर ने उसके पुत्र भगवानदास को "राजा" की उपाधि से विभूषित किया।
- भगवानदास को 5000 का मनसब और पंजाब का सूबेदार (1582-1589 ई.) नियुक्त किया।
महाराणा प्रताप से सन्धि प्रयास:
- सितम्बर-अक्टूबर 1573 ई. में अकबर ने भगवानदास को महाराणा प्रताप को सन्धि के लिए मनाने हेतु नियुक्त किया।
सलीम (जहांगीर) से वैवाहिक संबंध:
- भगवानदास ने अपनी पुत्री मानबाई का विवाह अकबर के पुत्र सलीम से किया।
- मानबाई के पुत्र खुसरो का जन्म हुआ।
धार्मिक दृढ़ता:
- भगवानदास ने अकबर के दीन-ए-इलाही धर्म को स्वीकार करने से इनकार कर दिया।
सम्मान और विशेष उपलब्धि:
- भगवानदास को अकबर ने नगाड़ा और ध्वज देकर सम्मानित किया।
- यह सम्मान पाने वाले राजस्थान के एकमात्र राजा थे।
मृत्यु:
- भगवानदास की मृत्यु लाहौर (रावी नदी के किनारे) में हुई।
मान सिंह (1589-1614 ई.) - मुख्य बिंदु
जन्म और प्रारंभिक जीवन
- जन्म: 6 दिसंबर 1550, मौजमाबाद (जयपुर)।
- भगवानदास के पुत्र, जिन्होंने 12 वर्ष की आयु (1562 ई.) में मुगल सेवा में प्रवेश किया।
- दादा भारमल ने अकबर की अधीनता स्वीकार कर मानसिंह को मुगल सेवा में भेजा।
उपाधियाँ और मनसब
- भगवानदास की मृत्यु के बाद अकबर ने मानसिंह को "मिर्जाराजा" और "फर्जन्द" (पुत्र) की उपाधियों से विभूषित किया।
- अकबर ने 7000 का मनसब प्रदान किया।
प्रमुख सैन्य अभियानों में योगदान
प्रारंभिक विजय:
- 1569 ई.: बूँदी के राजा सुर्जन हाड़ा को हराकर रणथंभौर पर कब्जा।
- सरनाल के युद्ध में विशेष ख्याति अर्जित की।
- 1573 ई.: डूंगरपुर के शासक आसकरण को पराजित किया।
हल्दीघाटी युद्ध (1576 ई.):
- 18 जून 1576 को महाराणा प्रताप के विरुद्ध मुगल सेना का नेतृत्व।
- युद्ध में मेवाड़ की पराजय के बावजूद प्रताप को पूरी तरह अधीन न कर सके।
उत्तर-पश्चिमी अभियान:
- 1580 ई.: उत्तर-पश्चिमी सीमांत और सिंध की व्यवस्था के लिए नियुक्त।
- 1581 ई.: काबुल के हाकिम मिर्जा को परास्त कर मुगल शक्ति स्थापित की।
बिहार और बंगाल अभियान:
- 1587-1594 ई.: बिहार के सुबेदार, जहाँ स्थानीय विद्रोहियों को दबाया।
- 1594 ई.: बंगाल के सूबेदार नियुक्त।
- राजधानी टांडा से राजमहल स्थानांतरित की।
- ईसाखाँ, सुलेमान, और केदारराय जैसे विद्रोहियों का दमन किया।
- 1596 ई.: कूचबिहार के राजा लक्ष्मीनारायण को मुगल अधीनता स्वीकारने पर मजबूर किया।
अन्य योगदान:
- काबुल, बिहार, और बंगाल में सुव्यवस्था स्थापित।
- बैराठ में पंचमहल और पुष्कर में मानमहल का निर्माण।
- बंगाल से लौटते समय शिला देवी की मूर्ति आमेर महल में स्थापित की।
धार्मिक योगदान और निर्माण कार्य
धार्मिक आस्था:
- हिंदू धर्म के प्रति गहरी आस्था।
- अकबर के दीन-ए-इलाही और इस्लाम धर्म स्वीकार करने से इनकार।
मंदिर निर्माण:
- गया (बिहार) में महादेव मंदिर।
- वृंदावन में गोविंद देव जी का मंदिर।
- आमेर में शिला देवी का मंदिर।
नए नगरों की स्थापना:
- राजमहल/अकबरनगर (बंगाल)।
- मानपुर (बिहार)।
साहित्यिक योगदान
संबंधित ग्रंथ:
- 'मानचरित्र' और 'महाराजकोष'।
- राय मुरारीदास ने 'मान-प्रकाश' लिखा।
- जगन्नाथ ने 'मानसिंह कीर्ति मुक्तावली' की रचना की।
- दादूदयाल ने 'वाणी' की रचना की।
दरबारी कवि और लेखक:
- हरिनाथ, सुंदरदास, पुण्डरीक (रागमंजरी, नर्तन निर्णय), और दलपतराज।
महत्त्वपूर्ण घटनाएँ और उत्तराधिकार
अकबर के बाद:
- 1605 ई. में जहाँगीर के शासनकाल में खुसरो के विद्रोह का समर्थन।
- खुसरो का विद्रोह असफल होने पर गुरु अर्जुनदेव को मृत्युदंड।
मृत्यु:
- 1614 ई. में इलिचपुर (महाराष्ट्र) में।
- मृत्यु के बाद भावसिंह शासक बने।
विशेष योगदान
- युद्ध नीति, शासन कौशल और स्थापत्य में महारथ।
- संस्कृत भाषा और संस्कृति के प्रति प्रेम।
- राजस्थान के कच्छवाहा शासकों में मानसिंह का महत्त्वपूर्ण स्थान।
मिर्जा राजा जयसिंह (1621-1667 ई.) का जीवन और कार्य:
1. प्रारंभिक जीवन और राज्याभिषेक
- जयसिंह, राजा मानसिंह प्रथम के वंशज थे। उनके पिता महासिंह और दादा जगतसिंह थे।
- भावसिंह की कोई संतान नहीं थी, इसलिए जयसिंह को 11 वर्ष की आयु में आमेर की गद्दी पर बैठाया गया।
- उनका पालन-पोषण उनकी माता दमयंती ने दौसा के माधोराजपुरा किले में किया।
- उन्होंने फारसी, तुर्की, उर्दू, संस्कृत और हिंदी भाषाओं का ज्ञान प्राप्त किया।
2. मुगल सम्राटों की सेवा
- जयसिंह ने तीन मुगल सम्राटों की सेवा की:
- जहाँगीर (1605-1627 ई.)
- शाहजहाँ (1628-1658 ई.)
- औरंगजेब (1658-1707 ई.)
- 1623 ई. में पहली बार मलिक अम्बर के खिलाफ नियुक्ति हुई।
- शाहजहाँ ने 1638 ई. में "मिर्जा राजा" की उपाधि दी।
3. शिवाजी और पुरंदर की सन्धि (1665 ई.)
- औरंगजेब ने 1664 ई. में शिवाजी के खिलाफ अभियान का नेतृत्व उन्हें सौंपा।
- शिवाजी और जयसिंह के बीच पुरंदर की सन्धि हुई:
- शिवाजी ने 23 किले मुगलों को सौंपे (40 लाख की आमदनी)।
- 12 किले शिवाजी के पास रहे।
- शिवाजी ने मुगलों की अधीनता स्वीकार की।
- शिवाजी के पुत्र शंभाजी को 5,000 का मनसबदार बनाया गया।
4. साहित्य और संस्कृति
- उनके दरबार में प्रसिद्ध कवि बिहारी थे, जिन्होंने ‘बिहारी सतसई’ की रचना की।
- अन्य कृतियाँ:
- रामकवि द्वारा ‘जयसिंह चरित्र’।
- धार्मिक ग्रन्थ: ‘धर्म प्रदीप’, ‘भक्ति रत्नावली’, ‘हरनकर रत्नावली’ आदि।
5. निर्माण कार्य
- जयगढ़ दुर्ग का निर्माण करवाया, जो तोप निर्माण के लिए प्रसिद्ध था।
- यहाँ एशिया की सबसे बड़ी तोप ‘जयबाण’ स्थित है।
- बुरहानपुर (मध्य प्रदेश) में उनकी स्मृति में 38 खंभों की छतरी बनाई गई।
6. मृत्यु
- बीजापुर अभियान की विफलता से दुखी होकर 28 अगस्त 1667 ई. को बुरहानपुर में उनका निधन हुआ।
- उनके बाद कच्छवाहा वंश का शासन जारी रहा।
7. मुख्य उपलब्धियाँ
- तीन मुगल सम्राटों की सेवा में महत्वपूर्ण योगदान।
- शिवाजी को मुगलों के प्रति अधीनता स्वीकार करवाने में सफलता।
- जयगढ़ दुर्ग और अन्य निर्माण कार्य।
- साहित्य और संस्कृति को प्रोत्साहन।
निष्कर्ष:
मिर्जा राजा जयसिंह का शासन कच्छवाहा वंश के इतिहास में स्वर्णिम काल था। उन्होंने मुगल साम्राज्य की स्थिरता में योगदान दिया और कूटनीति, प्रशासन, युद्ध कला तथा सांस्कृतिक विकास में उल्लेखनीय भूमिका निभाई।
सवाई जयसिंह द्वितीय (1700-1743 ई.) का जीवन और कार्य
1. प्रारंभिक जीवन और गद्दी पर आरूढ़ होना
- बिशन सिंह के बाद मात्र 12 वर्ष की आयु में सवाई जयसिंह द्वितीय आमेर के शासक बने।
- उनका मूल नाम विजयसिंह था, परंतु औरंगजेब ने उनका नाम बदलकर जयसिंह रखा और "सवाई" की उपाधि दी।
- सवाई का अर्थ है "सामान्य से डेढ़ गुना अधिक बुद्धिमान।"
2. मुगल सम्राटों के साथ संबंध
- 1707 ई. में औरंगजेब की मृत्यु के बाद जजाऊ के युद्ध (1707) में सवाई जयसिंह ने आजम का समर्थन किया।
- बहादुरशाह प्रथम (मुअज्जम) की विजय के बाद जयसिंह को निष्कासित कर दिया गया और उनके भाई विजयसिंह को आमेर का शासक बना दिया गया।
- मेवाड़ के महाराणा अमरसिंह द्वितीय और मारवाड़ के महाराजा अजीतसिंह की सहायता से जयसिंह ने आमेर का पुनः अधिग्रहण किया।
3. विवाह और राजनीतिक गठजोड़
- अमरसिंह द्वितीय ने अपनी पुत्री चन्द्रकुँवरी का विवाह सवाई जयसिंह से इस शर्त पर किया कि उनके पुत्र को आमेर का उत्तराधिकारी बनाया जाएगा।
- महाराजा अजीतसिंह ने भी अपनी पुत्री सूरजकुँवर का विवाह जयसिंह से किया।
4. सैन्य अभियान
- 1716 ई. में फर्रुखसियर ने उन्हें जाट नेता चूड़ामन के खिलाफ अभियान पर भेजा, लेकिन सफलता नहीं मिली।
- 1722 ई. में मुहम्मदशाह ने फिर जाट विद्रोह को दबाने का कार्य सौंपा।
- चूड़ामन के भतीजे बदनसिंह को मुगल पक्ष में मिलाया।
- बदनसिंह को "ब्रज राजा" की उपाधि दी।
- इन अभियानों के लिए मुहम्मदशाह ने जयसिंह को "सरमद-ए-राजा-ए-हिंद", "राज-राजेश्वर" और "सवाई" की उपाधियों से सम्मानित किया।
5. मराठों का प्रवेश और बूँदी विवाद
- सवाई जयसिंह ने अपनी बहन अमर कुंवरी का विवाह बूँदी के शासक बुद्धसिंह हाड़ा से किया।
- बूँदी में उत्तराधिकार विवाद के दौरान जयसिंह ने बुद्धसिंह को पदच्युत कर दिया।
- बुद्धसिंह की रानी ने मराठों को आमंत्रित किया, जिससे मराठों का राजस्थान में पहला हस्तक्षेप हुआ।
6. हुरड़ा सम्मेलन (1734 ई.)
- बढ़ती मराठा शक्ति का प्रतिरोध करने के लिए 17 जुलाई, 1734 ई. को हुरड़ा सम्मेलन का आयोजन किया।
- इसमें मेवाड़, जोधपुर, कोटा, बीकानेर, नागौर, बूँदी, करौली और किशनगढ़ के शासकों ने भाग लिया।
- सम्मेलन राजपूतों को एकजुट करने में असफल रहा।
7. अश्वमेध यज्ञ (1734 और 1742 ई.)
- सवाई जयसिंह ने भारतीय परंपरा के अनुसार अश्वमेध यज्ञ का आयोजन किया।
- पहला यज्ञ अगस्त 1734 ई. में।
- दूसरा यज्ञ 1742 ई. में बड़े स्तर पर।
- यज्ञ की स्मृति में जयपुर के निकट पहाड़ी पर यूप स्तम्भ का निर्माण करवाया।
- सवाई जयसिंह अंतिम हिन्दू नरेश थे जिन्होंने अश्वमेध यज्ञ किया।
8. योगदान और उपाधियाँ
- मुहम्मदशाह ने "सरमद-ए-राजा-ए-हिंद" और "राज-राजेश्वर" की उपाधियाँ प्रदान कीं।
- बदनसिंह को जाटों का नेता स्वीकार करवाकर "ब्रज राजा" की उपाधि दी।
9. सवाई जयसिंह द्वितीय का महत्व
- राजस्थान में मराठा हस्तक्षेप और राजपूत एकता के प्रयासों में महत्वपूर्ण भूमिका।
- भारतीय परंपराओं के संरक्षण और यज्ञों के आयोजन में अग्रणी।
- अपनी राजनीतिक कुशलता और शौर्य के लिए प्रसिद्ध।
सवाई ईश्वरी सिंह (1743-1750 ई.) का शासनकाल
1. गद्दी पर बैठना
- सवाई जयसिंह की मृत्यु के बाद उनके पुत्र ईश्वरी सिंह ने शासन संभाला।
- इन्हें जागृतदेव और भौमियादेव भी कहा जाता है।
- देबारी समझौते के अनुसार चंद्रकुंवरी के पुत्र को गद्दी मिलनी थी, लेकिन ईश्वरी सिंह (सूरज कुवंरी के पुत्र) ने गद्दी संभाली।
- छोटे भाई माधोसिंह ने गद्दी पर दावा ठोका, जिससे उत्तराधिकार को लेकर संघर्ष हुआ।
2. राजमहल का युद्ध (1747 ई.)
- स्थान: टोंक के पास राजमहल।
- पक्षकार:
- ईश्वरी सिंह: समर्थक - मल्हार राव होल्कर, मुगल सम्राट।
- माधोसिंह: समर्थक - राणोजी सिंधिया, खाण्डेराव, कोटा का दुर्जनसाल, मेवाड़ का शासक।
- माधोसिंह की मांगे:
- टोंक, टोड़ा, मालपुरा, और निवाई के परगने।
- उम्मेद सिंह हाड़ा को बूंदी का शासक स्वीकार किया जाए।
- तीन परगने नैनवा, समिधि, और कारवार को कोटा के राव दुर्जनसाल और प्रतापसिंह हाड़ा को दिया जाए।
- परिणाम:
- ईश्वरी सिंह ने मांगे अस्वीकार कीं और युद्ध में विजय प्राप्त की।
- विजय स्मारक:
- सरगासूली या ईसरलाट (त्रिपोलिया बाजार, जयपुर) का निर्माण।
- इसे "जयपुर की कुतुबमीनार" और "विजय स्तंभ" भी कहते हैं।
- शिल्पी: गणेश खोवान।
- शैली: मुगल-राजपूत।
- प्रभाव:
- मराठों का राजस्थान की राजनीति में हस्तक्षेप बढ़ा।
3. बगरु का युद्ध (1748 ई.)
- पुनः उत्तराधिकार संघर्ष: ईश्वरी सिंह और माधोसिंह के बीच।
- पक्षकार:
- माधोसिंह के पक्ष में पेशवा और होल्कर।
- परिणाम:
- ईश्वरी सिंह पराजित।
- जयपुर राज्य का विभाजन:
- ईश्वरी सिंह: टोंक, टोड़ा, मालपुरा।
- माधोसिंह: पाँच परगने।
- मराठों को बड़ी धनराशि हर्जाने के रूप में देनी पड़ी।
4. आत्महत्या (1750 ई.)
- मराठा सरदार मल्हार राव होल्कर ने हर्जाना वसूलने के लिए जयपुर पर चढ़ाई की।
- मराठों के दबाव से त्रस्त होकर ईश्वरी सिंह ने अपनी तीन रानियों और एक पासवान के साथ आत्महत्या कर ली।
- विशेष:
- राजपूताना का एकमात्र शासक जिसने मराठों के दबाव से आत्महत्या की।
5. अन्य उपलब्धियाँ और स्मृतियाँ
- छतरी निर्माण:
- सिटी पैलेस, जयपुर में ईश्वरी सिंह की छतरी स्थित है।
- कृष्ण कवि:
- "ईश्वरी विलास" ग्रंथ की रचना।
सार
सवाई ईश्वरी सिंह का शासनकाल संघर्ष और मराठों के बढ़ते प्रभाव का युग था। राजमहल और बगरु के युद्धों ने न केवल जयपुर राज्य को विभाजित किया बल्कि राजस्थान की राजनीति में मराठों के स्थायी हस्तक्षेप की नींव रखी। उनकी आत्महत्या ने शासकीय दबाव और सामाजिक चुनौतियों की गंभीरता को उजागर किया।
माधोसिंह प्रथम (1750-1768 ई.) का शासनकाल
1. शासन की शुरुआत (1750 ई.)
- ईश्वरीसिंह की मृत्यु के बाद उनके छोटे भाई माधोसिंह प्रथम जयपुर के शासक बने।
- इनका कद-काठी अद्भुत थी – 7 फीट लंबा और 4 फीट चौड़ा।
2. मराठों से संघर्ष
- शासन प्रारंभ होने पर मराठा सरदार मल्हार राव होल्कर और जयप्पा सिंधिया ने बड़ी धनराशि की मांग की।
- मराठा उपद्रव:
- धनराशि नहीं मिलने पर मराठा सैनिकों ने जयपुर में उपद्रव किया।
- इसके जवाब में जयपुर के नागरिकों ने विद्रोह कर मराठा सैनिकों का कत्लेआम कर दिया।
3. प्रमुख युद्ध
कांकोड का युद्ध (1759 ई.)
- स्थान: टोंक।
- पक्षकार:
- माधोसिंह प्रथम।
- मल्हार राव होल्कर।
- परिणाम: माधोसिंह प्रथम की विजय।
भटवाड़ा का युद्ध (1761 ई.)
- स्थान: भटवाड़ा (बारां)।
- पक्षकार:
- जयपुर की सेना।
- कोटा के महाराव शत्रुसाल।
- कोटा की सेना का नेतृत्व: झाला जालिमसिंह (हाड़ौती का वीर दुर्गादास राठौड़)।
- परिणाम: जयपुर की पराजय।
- वर्णन: कवि डूंगरसी ने "शत्रुशाल रासो" में किया है।
मावंडा-मंडोली का युद्ध (1767 ई.)
- स्थान: मांडा।
- पक्षकार:
- जयपुर की सेना।
- भरतपुर के महाराजा जवाहर सिंह।
- परिणाम: जयपुर की विजय।
- इस युद्ध में जयपुर के गुरुसहाय और हरसहाय खत्री मारे गए।
4. राजनीतिक एवं सांस्कृतिक उपलब्धियाँ
- रणथम्भौर किले पर अधिकार:
- माधोसिंह ने मुगल बादशाह अहमदशाह, जाट महाराजा सूरजमल, और अवध नवाब सफदरजंग के मध्य समझौता करवाया।
- परिणामस्वरूप, बादशाह ने रणथम्भौर का किला माधोसिंह को सौंप दिया।
- नगर बसाव और निर्माण कार्य:
- 1763 ई.: सवाई माधोपुर नगर की स्थापना।
- जयपुर में मोती डूंगरी पर महलों का निर्माण।
- शील की डूंगरी, चाकसू में शीतला माता मंदिर का निर्माण।
5. कला और साहित्य
- दरबार के प्रमुख कलाकार:
- बृजपाल – उच्च कोटि के वीणा वादक।
- दरबारी कवि:
- द्वारकानाथ भट्ट – रचनाएँ:
- गलवा गीत।
- वाणी वैराग्य।
- द्वारकानाथ भट्ट – रचनाएँ:
6. मृत्यु (1768 ई.)
- माधोसिंह प्रथम का निधन 1768 ई. में हुआ।
सार
माधोसिंह प्रथम ने अपने शासनकाल में न केवल मराठा शक्ति का प्रतिरोध किया बल्कि रणथम्भौर किले पर अधिकार कर अपनी सैन्य और कूटनीतिक कुशलता का प्रदर्शन किया। उनके शासनकाल में जयपुर में सांस्कृतिक और स्थापत्य विकास भी हुआ।
पृथ्वीसिंह और सवाई प्रतापसिंह का शासनकाल
पृथ्वीसिंह (1768-1778 ई.)
- पृथ्वीसिंह अल्पायु में राजा बने।
- इनके शासनकाल में नरुका शाखा के प्रतापसिंह ने 1775 ई. में अलवर की स्थापना की।
- पृथ्वीसिंह की मृत्यु जहर खुरानी के कारण हुई।
सवाई प्रतापसिंह (1778-1803 ई.)
1. प्रारंभिक चुनौतियाँ
- सवाई माधोसिंह प्रथम के पश्चात जयपुर के प्रमुख शासक बने।
- शासनकाल में मराठों का लगातार हस्तक्षेप रहा।
- 1786 ई. में जयपुर और मराठों के बीच संधि हुई, जिसमें 63 लाख रुपये मराठों को देने तय हुए।
- धनराशि न मिलने पर महादजी सिंधिया ने जयपुर पर आक्रमण किया।
2. प्रमुख युद्ध
तुंगा का युद्ध (1787 ई.)
- स्थान: जयपुर ग्रामीण।
- पक्षकार:
- सवाई प्रतापसिंह।
- माधावराव सिंधिया।
- परिणाम:
- सवाई प्रतापसिंह की विजय।
- सेनापति: सूरजमल शेखावत (बिसाऊ के ठाकुर)।
- महादजी सिंधिया की बड़ी असफलता, क्योंकि वे न धन वसूल सके और न ही राजपूतों को कुचल सके।
- युद्ध के बाद सवाई प्रतापसिंह की प्रतिष्ठा बढ़ी।
- जोधपुर के महाराजा विजयसिंह ने अजमेर पर अधिकार कर लिया।
पाटन का युद्ध (1790 ई.)
- स्थान: पाटन (नीम का थाना)।
- पक्षकार:
- सवाई प्रतापसिंह।
- महादजी सिंधिया।
- परिणाम:
- महादजी सिंधिया की विजय।
- सिंधिया सेना का नेतृत्व लकवा दादा और डी. बोइन (फ्रांसीसी) ने किया।
- इस्माइल बेग राजपूतों के साथ थे।
- मराठों ने अजमेर पर अधिकार किया और बड़ी धनराशि वसूल की।
मेड़ता का युद्ध (1790 ई.)
- स्थान: मेड़ता।
- पक्षकार:
- सवाई प्रतापसिंह।
- मराठा।
- परिणाम: मराठों की विजय।
- डी. बोइन (फ्रांसीसी सेनापति) की मृत्यु हो गई।
- डी. बोइन की छतरी मेड़ता में स्थित है।
सांभर की संधि (1791 ई.)
- परिणाम:
- पाटन और मेड़ता की पराजय के बाद जयपुर ने 60 लाख रुपये और अजमेर का परगना मराठों को सौंपा।
फतेहपुर का युद्ध (1799 ई.)
- स्थान: सीकर।
- पक्षकार:
- सवाई प्रतापसिंह।
- जॉर्ज थॉमस (झांझ फिरंगी)।
- परिणाम: जॉर्ज थॉमस की विजय।
मालपुरा का युद्ध (1800 ई.)
- स्थान: मालपुरा (टोंक)।
- पक्षकार:
- सवाई प्रतापसिंह।
- मराठा सरदार दौलतराव सिंधिया।
- परिणाम: मराठों की विजय।
3. सांस्कृतिक और स्थापत्य उपलब्धियाँ
हवा महल का निर्माण (1799 ई.)
- 5 मंजिला इमारत।
- 953 खिड़कियाँ।
- शिल्पी: लालचन्द।
संगीत और साहित्य:
- ब्रजनिधि नाम से कविताएँ लिखते थे।
- दरबारी संगीतज्ञ:
- उस्ताद चांदखां – रचना: स्वरसागर।
- सवाई प्रतापसिंह ने उन्हें बुद्ध प्रकाश की उपाधि दी।
- दरबारी कवि:
- पदमाकर – ग्रंथ: जयविनोद।
- राधाकृष्ण – ग्रंथ: राग रत्नाकर।
- गणपत भारती – काव्य गुरु।
- देवर्षि बृजपाल भट्ट ने "राधा गोविन्द संगीत सार" की रचना की।
तमाशा लोक नाट्य:
- महाराष्ट्र से राजस्थान आया।
जयपुरी चित्रकला:
- सवाई प्रतापसिंह का शासनकाल जयपुरी चित्रकला का स्वर्णकाल था।
गंधर्व बाईसी:
- 22 कवि।
- 22 संगीतज्ञ।
- 22 नाटककार।
सवाई प्रतापसिंह का शासनकाल राजपूत प्रतिष्ठा के लिए संघर्ष और सांस्कृतिक उत्कर्ष का समय था।
उन्होंने न केवल मराठों के खिलाफ जयपुर की गरिमा को बचाने का प्रयास किया, बल्कि कला, संगीत, और स्थापत्य में भी महत्वपूर्ण योगदान दिया।
सवाई जगतसिंह द्वितीय (1803-1818 ई.)
सवाई माधोसिंह द्वितीय (1880-1922 ई.)
शासन की शुरुआत:
- सवाई रामसिंह द्वितीय की निःसंतान मृत्यु के बाद माधोसिंह द्वितीय को शासक बनाया गया। उनका वास्तविक नाम कायम सिंह था और वे ईसरदा के ठाकुर के पुत्र थे।
- यह राधाकृष्ण के भक्त थे।
लंदन यात्रा (1902):
- सवाई माधोसिंह द्वितीय ने 1902 में लंदन में आयोजित एडवर्ड सप्तम के राज्याभिषेक समारोह में भाग लिया।
- वे समुद्र मार्ग से ओलंपिया जहाज से यूरोप जाने वाले पहले राजा थे।
गंगा जल से भरे चांदी के जार:
- सवाई माधोसिंह द्वितीय ने गंगा जल से भरे हुए दो विशाल चांदी के जार लंदन यात्रा के दौरान साथ ले गए थे।
- प्रत्येक जार का वजन 345 किग्रा था और प्रत्येक की क्षमता 900 गेलन थी।
- ये जार गिनीज बुक ऑफ वर्ल्ड रिकॉर्ड में नामित हैं, क्योंकि ये विश्व के सबसे बड़े चांदी के जार हैं।
सम्मान और उपाधियाँ:
- 1903 में, ड्यूक ऑफ कनॉट, एडवर्ड सप्तम का बड़ा भाई, जयपुर के सिटी पैलेस दरबार में आए और सवाई माधोसिंह द्वितीय को ग्राण्ड कमाण्डर द विक्टोरियन ऑर्डर से सम्मानित किया।
पंडित मदनमोहन मालवीय का सम्मान:
- जब पंडित मदनमोहन मालवीय जी जयपुर आए, तो सवाई माधोसिंह द्वितीय ने उनका भव्य स्वागत किया और बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय के लिए 5 लाख रुपये दिये।
नाहरगढ़ दुर्ग में महल निर्माण:
- नाहरगढ़ दुर्ग में अपनी 9 पासवानों (दासियों) के लिए सवाई माधोसिंह द्वितीय ने 9 समान महल बनवाए।
- इन महलों के नाम थे: जवाहर महल, सूरज महल, चांद महल, फूल महल, खुशहाल महल, ललित महल, लक्ष्मी महल, बसंत महल, और आनंद महल।
बब्बर शेर:
- सवाई माधोसिंह द्वितीय को बब्बर शेर के नाम से भी प्रसिद्धि प्राप्त थी।
वृन्दावन में माधो बिहारी मंदिर:
- सवाई माधोसिंह द्वितीय ने वृन्दावन में माधो बिहारी मंदिर का निर्माण करवाया।
मृत्यु:
- सवाई माधोसिंह द्वितीय का निधन 1922 में हुआ।
इस प्रकार, सवाई माधोसिंह द्वितीय का शासन काल जयपुर राज्य में कला, संस्कृति, और भव्यता के प्रतीक के रूप में जाना जाता है !
सवाई माधोसिंह द्वितीय (1880-1922 ई.)
शासन की शुरुआत:
- सवाई रामसिंह द्वितीय की निःसंतान मृत्यु के बाद ईसरदा के ठाकुर के पुत्र माधोसिंह द्वितीय को शासक बनाया गया। उनका असली नाम कायम सिंह था। वे राधाकृष्ण के भक्त थे।
लंदन यात्रा (1902):
- 1902 में एडवर्ड सप्तम के राज्याभिषेक समारोह में भाग लेने के लिए सवाई माधोसिंह द्वितीय लंदन गए थे।
- वे समुद्र मार्ग से ओलंपिया जहाज से यूरोप जाने वाले पहले राजा थे।
गंगा जल से भरे चांदी के जार:
- सवाई माधोसिंह द्वितीय ने अपनी लंदन यात्रा के दौरान गंगा जल से भरे दो विशाल चांदी के जार साथ ले गए थे।
- प्रत्येक जार का वजन 345 किग्रा और क्षमता 900 गेलन थी।
- ये जार गिनीज बुक ऑफ वर्ल्ड रिकॉर्ड में दर्ज हैं और यह विश्व के सबसे बड़े चांदी के जार हैं।
सम्मान और उपाधियाँ:
- 1903 में, ड्यूक ऑफ कनॉट, जो एडवर्ड सप्तम के बड़े भाई थे, सिटी पैलेस दरबार में आए और सवाई माधोसिंह द्वितीय को ग्राण्ड कमाण्डर द विक्टोरियन ऑर्डर से सम्मानित किया।
पंडित मदनमोहन मालवीय का स्वागत:
- जब पंडित मदनमोहन मालवीय जी जयपुर आए, तो सवाई माधोसिंह द्वितीय ने उनका भव्य स्वागत किया और बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय के लिए 5 लाख रुपये दान किए।
नाहरगढ़ दुर्ग में महल निर्माण:
- सवाई माधोसिंह द्वितीय ने नाहरगढ़ दुर्ग में अपनी 9 पासवानों (दासियों) के लिए एक जैसे 9 महल बनवाए।
- महलों के नाम थे: जवाहर महल, सूरज महल, चांद महल, फूल महल, खुशहाल महल, ललित महल, लक्ष्मी महल, बसंत महल, और आनंद महल।
बब्बर शेर:
- सवाई माधोसिंह द्वितीय को बब्बर शेर के नाम से भी प्रसिद्धि प्राप्त थी।
वृन्दावन में माधो बिहारी मंदिर:
- सवाई माधोसिंह द्वितीय ने वृन्दावन में माधो बिहारी मंदिर का निर्माण करवाया।
मृत्यु:
- सवाई माधोसिंह द्वितीय का निधन 1922 में हुआ।
सवाई माधोसिंह द्वितीय के शासनकाल को उनके कार्यों और भव्यता के लिए याद किया जाता है।
सवाई माधोसिंह द्वितीय (1880-1922 ई.)
शासन की शुरुआत:
- सवाई रामसिंह द्वितीय की निःसंतान मृत्यु के बाद ईसरदा के ठाकुर के पुत्र माधोसिंह द्वितीय को शासक बनाया गया। उनका असली नाम कायम सिंह था। वे राधाकृष्ण के भक्त थे।
लंदन यात्रा (1902):
- 1902 में एडवर्ड सप्तम के राज्याभिषेक समारोह में भाग लेने के लिए सवाई माधोसिंह द्वितीय लंदन गए थे।
- वे समुद्र मार्ग से ओलंपिया जहाज से यूरोप जाने वाले पहले राजा थे।
गंगा जल से भरे चांदी के जार:
- सवाई माधोसिंह द्वितीय ने अपनी लंदन यात्रा के दौरान गंगा जल से भरे दो विशाल चांदी के जार साथ ले गए थे।
- प्रत्येक जार का वजन 345 किग्रा और क्षमता 900 गेलन थी।
- ये जार गिनीज बुक ऑफ वर्ल्ड रिकॉर्ड में दर्ज हैं और यह विश्व के सबसे बड़े चांदी के जार हैं।
सम्मान और उपाधियाँ:
- 1903 में, ड्यूक ऑफ कनॉट, जो एडवर्ड सप्तम के बड़े भाई थे, सिटी पैलेस दरबार में आए और सवाई माधोसिंह द्वितीय को ग्राण्ड कमाण्डर द विक्टोरियन ऑर्डर से सम्मानित किया।
पंडित मदनमोहन मालवीय का स्वागत:
- जब पंडित मदनमोहन मालवीय जी जयपुर आए, तो सवाई माधोसिंह द्वितीय ने उनका भव्य स्वागत किया और बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय के लिए 5 लाख रुपये दान किए।
नाहरगढ़ दुर्ग में महल निर्माण:
- सवाई माधोसिंह द्वितीय ने नाहरगढ़ दुर्ग में अपनी 9 पासवानों (दासियों) के लिए एक जैसे 9 महल बनवाए।
- महलों के नाम थे: जवाहर महल, सूरज महल, चांद महल, फूल महल, खुशहाल महल, ललित महल, लक्ष्मी महल, बसंत महल, और आनंद महल।
सवाई माधोसिंह द्वितीय का शासनकाल ऐतिहासिक दृष्टि से महत्वपूर्ण था और उनकी भव्यता तथा धार्मिक आस्थाओं के लिए उन्हें याद किया जाता है !
अलवर का इतिहास
प्रारंभिक शासन:
- अलवर में कछवाहा वंश की नरूका शाखा का शासन था।
- मिर्जा राजा जयसिंह ने कल्याण सिंह नरूका को माचेड़ी की जागीर दी थी।
- 1734 में मुगल बादशाह शाह आलम ने माचेड़ी के प्रतापसिंह को स्वतंत्र राजा घोषित किया।
- प्रतापसिंह ने 1775 में अलवर को जीतकर उसे अपनी राजधानी बनाया।
बख्तावर सिंह (1803):
- 1803 में अंग्रेजों से संधि की थी।
- बख्तेश और चन्द्रसखी नाम से कविताएं लिखते थे।
विनयसिंह:
- 1815 में मूसी महारानी की छतरी का निर्माण करवाया। इस छतरी में 80 खम्भे हैं। मूसी महारानी बख्तावर सिंह की दासी थी, और सती के बाद उन्हें राजा की पत्नी के रूप में स्वीकार किया गया था।
- अपनी रानी शीला के लिए सिलीसेढ झील का निर्माण करवाया। इसे 'राजस्थान का नन्दन कानन' कहा जाता है।
जयसिंह:
- प्रथम गोलमेज सम्मेलन में भाग लिया था।
- नवीन मंडल का नाम रखा।
- हिन्दी को अलवर में राष्ट्रभाषा घोषित किया। (यह निर्णय भरतपुर के राजा किशानसिंह ने भी लिया था।)
- BHU, AMU, और सनातन धर्म कॉलेज को आर्थिक सहायता दी थी।
- 10 दिसंबर 1903 को अलवर में बालविवाह और अनमेल विवाह पर रोक लगा दी।
- ड्यूक ऑफ एडिनबर्ग के आगमन पर सरिस्का पैलेस का निर्माण कराया।
- 1933 में तिजारा दंगों के बाद जय सिंह को शासन मुक्त कर दिया गया, जिसके बाद वे पेरिस चले गए, जहां उनकी मृत्यु हो गई।
तेजसिंह:
- आजादी के समय अलवर के राजा थे।
- महात्मा गांधी की हत्या में उनका नाम आया था, लेकिन बाद में सुप्रीम कोर्ट ने उन्हें निर्दोष करार दिया।
अलवर का इतिहास शाही परिवारों, सांस्कृतिक योगदान और ब्रिटिश सत्ता के प्रति जागरूकता का इतिहास रहा है।