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चौहान वंश


  1. चौहानों की उत्पत्ति के संबंध में मत:

    • पृथ्वीराज रासौ (चंद्रबरदाई): अग्निकुण्ड से उत्पन्न (ऋषि वशिष्ठ द्वारा आबू पर्वत पर यज्ञ से)।
    • उत्पन्न चार राजपूत: प्रतिहार, परमार, चालुक्य, चौहान (क्रम: हार, मार, चाचो)।
    • मुहणोत नैणसी और सूर्यमल मिश्रण: अग्निकुण्ड उत्पत्ति का समर्थन।
    • गौरीशंकर ओझा: चौहानों को सूर्यवंशी बताया।
    • बिजोलिया शिलालेख: चौहान ब्राह्मण वंश से उत्पन्न।
  2. चौहानों का मूल स्थान और क्षेत्र:

    • मूल स्थान: सांभर (शाकंभरी देवी तीर्थ)।
    • क्षेत्र: सपादलक्ष (सवा लाख गांवों का समूह)।
    • प्रारंभिक राजधानी: अहिच्छत्रपुर (वर्तमान नागौर)।
  3. सपादलक्ष के चौहानों का आदि पुरुष:

    • आदि पुरुष: वासुदेव।
    • समय: लगभग 551 ई.।
    • बिजोलिया प्रशस्ति: वासुदेव को सांभर झील का निर्माता बताया।
    • चौहान वंश: वत्सगौत्रीय ब्राह्मण।
  4. चौहान राजाओं का प्रारंभिक संबंध:

    • प्रारंभ में चौहान प्रतिहारों के सामंत थे।
  5. महत्वपूर्ण शासक और योगदान:

    • गुवक प्रथम:
      • हर्षनाथ मंदिर (भगवान शंकर) का निर्माण कराया।
    • चंदराज की पत्नी रुद्राणी:
      • योग साधना में निपुण।
      • पुष्कर झील में प्रतिदिन 1,000 दीपक जलाकर महादेव की उपासना।
  6. विशेष तथ्य:

    • सांभर झील: सांभर के वासुदेव द्वारा निर्मित।
    • सांभर: शाकंभरी देवी का तीर्थस्थल (तीर्थों की नानी)।




सांभर के चौहान वंश के प्रमुख शासक और उनकी उपलब्धियां 

  1. सिंहराज:

    • अनेक राजाओं को कारागार में बंद किया।
    • प्रतिहार सम्राट स्वयं उन्हें छुड़ाने के लिए आया।
    • उपाधि: “परमभट्टारक-महाराजाधिराज-परमेश्वर” (स्वतंत्र राजा द्वारा धारण की जाने वाली उपाधि)।
  2. विग्रहराज द्वितीय (गंगा):

    • उपनाम: गंगा।
    • चालुक्य शासक मूलराज प्रथम (भरूच, गुजरात) को पराजित किया।
    • भरूच में आशापुरा देवी के मंदिर का निर्माण कराया।
    • उपाधि: "मतंगा शासक"।
    • जानकारी का स्रोत: सीकर से प्राप्त हर्षनाथ का शिलालेख (973 ई.)।
  3. गोविंद तृतीय:

    • उपाधि: "वैरीघरट्ट" (पृथ्वीराज विजय में उल्लेख)।
    • गजनी के शासक को मारवाड़ में आगे बढ़ने से रोका (फरिश्ता के अनुसार)।
  4. पृथ्वीराज प्रथम (विग्रहराज तृतीय के पुत्र):

    • अजयराज (1113-1133 ई.) – प्रमुख उपलब्धियां और योगदान (पॉइंट्स में):

      1. राजधानी स्थापना:

        • 1113 ई. में अजयमेरु (अजमेर) बसाकर इसे अपनी राजधानी बनाया।
      2. दुर्ग निर्माण:

        • अजयमेरु में गढ़बीठली दुर्ग का निर्माण (बीठली पहाड़ी पर)।
        • यह दुर्ग "पूर्व का जिब्राल्टर" कहा जाता है।
        • मेवाड़ के शासक पृथ्वीराज ने अपनी रानी तारा के नाम पर इसका नाम तारागढ़ दुर्ग रखा।
      3. सिक्के चलाना:

        • 'श्री अजयदेव' नाम से चाँदी के सिक्के जारी किए।
        • कुछ सिक्कों पर उसकी रानी सोमलेखा (सोमलवती) का नाम अंकित।
      4. गजनी के मुसलमानों पर विजय:

        • पृथ्वीराज विजय के अनुसार, गजनी के मुसलमानों को परास्त कर साम्राज्य की रक्षा की।
      5. राज्य सौंपना:

        • अपने पुत्र अर्णोराज को राज्य सौंपकर स्वयं पुष्कराध्य चला गया।
      6. दुर्ग का महत्व:

        • दुर्ग के अन्य नाम: अजयमेरू/तारागढ़/गढ़बीठली।

      1105 ई. में 700 चालुक्यों को हराया (जो पुष्कर के ब्राह्मणों को लूटने आए थे)।
    • उपाधि: "परमभट्टारक-महाराजाधिराज-परमेश्वर"।
    • मंत्री हट्ड ने सीकर में जीण माता का मंदिर बनवाया।



अर्णोराज (1133-1155 ई.) – प्रमुख उपलब्धियां और घटनाएं (पॉइंट्स में):


  1. राजगद्दी और उपाधि:

    • 1133 ई. में अजमेर का शासन संभाला।
    • उपाधियां: महाराजाधिराज, परमेश्वर, परमभट्टारक
  2. सैन्य उपलब्धियां:

    • तुर्क आक्रमणकारियों को खदेड़ा।
    • मालवा के शासक नरवर्मन को पराजित किया।
    • आबू के निकट चालुक्य कुमारपाल से पराजय (प्रबन्ध चिन्तामणि और प्रबन्ध कोश में वर्णित)।
  3. निर्माण कार्य:

    • आनासागर झील का निर्माण (तुर्कों के रक्त से अजमेर को शुद्ध करने के लिए)।
      • जहांगीर: झील के पास दौलत बाग (शाही बाग) का निर्माण।
      • नूरजहां की मां अस्मत बेगम: गुलाब के इत्र का आविष्कार।
      • शाहजहां: शाही बाग में पांच बारहदरी का निर्माण।
    • पुष्कर में वराह मंदिर का निर्माण।
  4. सामाजिक और धार्मिक योगदान:

    • अजमेर में खरतरगच्छ (जैन श्वेतांबर) अनुयायियों को भूमिदान दिया।
    • प्रकांड विद्वानों देवबोध और धर्मघोष को सम्मानित किया।
  5. पारिवारिक घटनाएं और अंत:

    • चालुक्य शासक जयसिंह सिद्धराज की पुत्री कांचन देवी से विवाह।
    • पुत्र जग्गदेव ने अर्णोराज की हत्या की, जिससे उसे "चौहानों का पितृहंता" कहा गया।
    • जग्गदेव की हत्या उसके भाई विग्रहराज चतुर्थ ने की।




बीसलदेव चौहान (विग्रहराज चतुर्थ) (1158-1163 ई.) – प्रमुख उपलब्धियां और घटनाएं


  1. सपादलक्ष का स्वर्णयुग:

    • विग्रहराज चतुर्थ का शासन सपादलक्ष का स्वर्णयुग कहलाता है।
    • उपाधियां: वीसलदेव, कवि बंधु (कवि बान्धव)
  2. सैन्य उपलब्धियां:

    • गजनी के शासक अमीर खुशरुशाह (हम्मीर) और दिल्ली के तोमर शासक तंवर को परास्त कर दिल्ली को अपने राज्य में शामिल किया।
    • चालुक्य शासक कुमारपाल से पाली, नागौर, और जालौर छीन लिए।
    • 1157 ई. में दिल्ली और हांसी पर अधिकार किया।
    • भादानकों को परास्त किया।
  3. निर्माण कार्य:

    • दिल्ली में शिवालिक स्तम्भ का निर्माण।
    • अजमेर में संस्कृत पाठशाला (अढ़ाई दिन के झोंपड़े के स्थान पर) का निर्माण।
    • बीसलपुर कस्बा और बीसल सागर बांध का निर्माण (वर्तमान टोंक जिले में)।
    • अढ़ाई दिन के झोंपड़े का निर्माण कालांतर में मोहम्मद गौरी के सेनापति कुतुबुद्दीन ऐबक ने करवाया।
  4. साहित्य और विद्वानों का संरक्षण:

    • हरिकेली नाटक: अर्जुन और शिव के युद्ध का वर्णन।
      • इस नाटक के अंश अढ़ाई दिन के झोंपड़े और राजाराममोहन राय की समाधि (ब्रिस्टल, इंग्लैंड) पर उत्कीर्ण।
    • ललित विग्रहराज नाटक: विग्रहराज के दरबारी विद्वान सोमदेव द्वारा रचित।
      • इसमें "बीसलदेव और देसलदेवी" के प्रेम प्रसंगों का वर्णन।
    • बीसलदेव रासौ: नरपति नाल्ह द्वारा रचित, "बीसलदेव और राजमती" के प्रेम प्रसंगों का वर्णन।
    • कवि जयानक भट्ट ने विग्रहराज को कवि बंधु की उपाधि दी।
  5. धार्मिक और सामाजिक योगदान:

    • म्लेच्छों को बार-बार पराजित कर आर्यावर्त को आर्यों के उपयुक्त निवास स्थान बनाया।
    • संस्कृत पाठशाला के लिए पाषाण अभिलेखों का प्रमाण (अढ़ाई दिन के झोंपड़े में)।





पृथ्वीराज चौहान तृतीय (1177-1192 ई.)


उपनाम: राय पिथौरा (युद्ध में पीठ न दिखाने वाला), दल पुंगल (विश्व विजेता)

  1. जन्म एवं प्रारंभिक जीवन:

    • पृथ्वीराज चौहान तृतीय का जन्म 1166 ई. (वि.सं. 1223) में सोमेश्वर और रानी कर्पूरीदेवी के पुत्र के रूप में अन्हिलपाटन (गुजरात) में हुआ।
    • पिता की असमय मृत्यु के बाद मात्र 11 वर्ष की आयु में अजमेर की गद्दी संभाली।
    • उनकी माता कर्पूरीदेवी ने आरंभिक वर्षों में शासन कार्य संभाला।
  2. शासनकाल का विस्तार:

    • उनके राज्य की सीमाएँ उत्तर में थानेश्वर से दक्षिण में जहाजपुर (मेवाड़) तक विस्तृत थीं।
    • पृथ्वीराज ने अपनी योग्यता और वीरता से शासन की बागडोर संभाली और आसपास के शत्रुओं का नाश किया।
    • उन्होंने "दल पुंगल" (विश्व विजेता) की उपाधि धारण की।
  3. दरबारी कवि एवं साहित्य:

    • साहित्य प्रेमी राजा के दरबार में जयानक, विद्यापति गौड़, वागीश्वर, जनार्दन और विश्वरूप जैसे विद्वान थे।
    • जयानक ने "पृथ्वीराज विजय" ग्रंथ की रचना की।
    • चंदबरदाई ने "पृथ्वीराज रासो" की रचना की, जिसे हिन्दी का पहला महाकाव्य कहा जाता है।
  4. प्रमुख घटनाएँ एवं युद्ध:

    • नागार्जुन एवं भण्डानकों का दमन (1178-1182 ई.):

      • पृथ्वीराज ने गुड़गाँव के युद्ध में अपने चचेरे भाई नागार्जुन को पराजित किया।
      • नागार्जुन और उसके परिवार को मृत्युदंड दिया।
      • भरतपुर-मथुरा क्षेत्र के भण्डानकों के विद्रोह का भी अंत किया।
    • महोबा (तुमुल) का युद्ध (1182 ई.):

      • महोबा के चंदेल शासक परमाल (परमार्दी) देव पर आक्रमण किया।
      • इस युद्ध में चंदेल सेना के सेनानायक आल्हा और उदल वीरगति को प्राप्त हुए।
      • चंदेल शक्ति का पतन हुआ और पृथ्वीराज का प्रभाव बढ़ा।
  5. सूफी संत का आगमन:

    • ख्वाजा मुइनुद्दीन चिश्ती पृथ्वीराज के समय अजमेर आए।
    • अजमेर में इनकी दरगाह का निर्माण बाद में इल्तुतमिश ने करवाया।

नोट: पृथ्वीराज तृतीय के शासनकाल ने चौहान वंश के गौरव को नई ऊँचाइयों तक पहुँचाया। उनकी वीरता और साहित्यिक योगदान के कारण उन्हें भारतीय इतिहास में विशेष स्थान प्राप्त है।




चालुक्यों पर विजय

गुजरात के चालुक्य और अजमेर के चौहान वंश के बीच लंबे समय से संघर्ष चलता रहा।

  1. सोमेश्वर के समय की मित्रता:

    • सोमेश्वर के शासनकाल में चालुक्य नरेश भीमदेव द्वितीय और चौहान वंश के बीच मैत्रीपूर्ण संबंध थे।
    • सोमेश्वर का विवाह भीमदेव के माध्यम से कलचुरी नरेश अचल की पुत्री कर्पूरदेवी से हुआ था।
  2. पृथ्वीराज तृतीय के समय संघर्ष:

    • सोमेश्वर की मृत्यु के बाद, यह संघर्ष फिर से शुरू हुआ।
    • संघर्ष के कारण:
      • पृथ्वीराज रासो के अनुसार: पृथ्वीराज और भीमदेव द्वितीय दोनों आबू के शासक सलख की पुत्री इच्छिनी से विवाह करना चाहते थे।
      • दूसरा कारण: पृथ्वीराज के चाचा कान्हा ने भीमदेव द्वितीय के सात चचेरे भाइयों को मार डाला, जिससे भीमदेव ने अजमेर पर आक्रमण कर नागौर पर अधिकार कर लिया।
      • वास्तविक कारण: चालुक्यों का राज्य नाडौल और आबू तक फैला था, जो पृथ्वीराज के राज्य की सीमाओं के समीप था।
  3. युद्ध का परिणाम:

    • पृथ्वीराज ने चालुक्य नरेश भीमदेव द्वितीय को पराजित किया।
    • इस विजय ने चौहान साम्राज्य की शक्ति और प्रतिष्ठा को और बढ़ाया।

आल्हा-उदल के बलिदान और चालुक्यों पर विजय, पृथ्वीराज तृतीय के वीरतापूर्ण शासनकाल के अद्वितीय अध्याय हैं, जो उन्हें इतिहास में अमर बनाते हैं।



आल्हा और उदल

आल्हा और उदल, महोबा के चन्देल शासक परमार्दिदेव (परमाल) के दो वीर सेनानायक थे, जिनकी वीरता और बलिदान भारतीय इतिहास और लोककथाओं में अमर है।

  1. परमार्दिदेव से मतभेद और परित्याग:

    • आल्हा और उदल, किसी कारणवश परमार्दिदेव से असंतुष्ट होकर पड़ोसी राज्य चले गए थे।
    • इसके बावजूद, उनकी मातृभूमि के प्रति उनकी निष्ठा और प्रेम अडिग था।
  2. पृथ्वीराज चौहान का आक्रमण (1182 ई.):

    • जब पृथ्वीराज चौहान ने महोबा पर आक्रमण किया, परमार्दिदेव ने आल्हा और उदल को संदेश भेजा कि उनकी मातृभूमि संकट में है।
    • मातृभूमि की रक्षा का आह्वान सुनकर, दोनों वीर लौट आए और अपनी मातृभूमि की रक्षा के लिए युद्ध में कूद पड़े।
  3. वीरगति और अमर बलिदान:

    • आल्हा और उदल ने युद्ध में अद्वितीय साहस और पराक्रम का प्रदर्शन किया।
    • उन्होंने अपनी मातृभूमि की रक्षार्थ वीरगति प्राप्त की और वीरता, शौर्य और बलिदान के प्रतीक बन गए।
  4. लोकगीत और स्मरण:

    • आल्हा और उदल की गाथाएँ आज भी लोकगीतों के माध्यम से जीवित हैं।
    • इनका शौर्य गीत, "जब तक आल्हा-उढ़ल है, तुम्हें कौन पड़ी परवाह", जनमानस में उनकी अमर वीरता की गूंज को जीवंत रखता है।

आल्हा-उदल की कथा, न केवल उनकी वीरता को प्रदर्शित करती है, बल्कि यह भी सिखाती है कि मातृभूमि के प्रति प्रेम और बलिदान से बढ़कर कुछ नहीं।





पृथ्वीराज चौहान और मुहम्मद गौरी


पृथ्वीराज चौहान और मुहम्मद गौरी के बीच हुए संघर्ष भारतीय इतिहास की दिशा और दशा को बदलने वाले माने जाते हैं। दोनों के मध्य प्रमुखत: दो युद्ध हुए, जिन्हें तराइन का प्रथम और द्वितीय युद्ध कहा जाता है।


तराइन का प्रथम युद्ध (1191 ई.)

  1. पृष्ठभूमि:

    • पृथ्वीराज चौहान ने दिल्ली, हाँसी, सरस्वती और सरहिंद के दुर्गों को जीत लिया था।
    • मुहम्मद गौरी ने 1190-91 में सरहिंद (तबरहिंद) पर अधिकार कर लिया और अपनी सेना वहाँ तैनात कर दी।
  2. युद्ध का घटनाक्रम:

    • दोनों सेनाओं के बीच हरियाणा के तराइन (तारावड़ी) के मैदान में युद्ध हुआ।
    • पृथ्वीराज की सेना ने गोविंदराज के नेतृत्व में दुश्मन का सामना किया।
    • गोविंदराज ने मुहम्मद गौरी को घायल कर दिया।
    • गौरी की सेना युद्ध क्षेत्र छोड़कर भाग खड़ी हुई।
  3. परिणाम और भूल:

    • पृथ्वीराज ने गौरी को क्षमा कर भागने दिया।
    • यह उनकी सबसे बड़ी भूल साबित हुई, जिसका खामियाजा अगले युद्ध में भुगतना पड़ा।

तराइन का द्वितीय युद्ध (1192 ई.)

  1. पृष्ठभूमि:

    • गौरी ने अपनी हार के बाद विशाल सेना तैयार की और अगले वर्ष पुनः तराइन के मैदान में लौट आया।
    • पृथ्वीराज ने भी अपनी सेना संगठित की, जिसमें उनके बहनोई समरसिंह और गोविंदराज जैसे वीर शामिल थे।
  2. युद्ध का घटनाक्रम:

    • गौरी की सेना ने रणनीति और अनुशासन का परिचय दिया, जबकि पृथ्वीराज की सेना बिखर गई।
    • पृथ्वीराज हार गए और उन्हें बंदी बना लिया गया।
  3. पृथ्वीराज का अंत:

    • पृथ्वीराज रासो के अनुसार, गौरी ने पृथ्वीराज को गजनी ले जाकर शब्दभेदी बाण के प्रदर्शन की आज्ञा दी।
    • चंदबरदाई ने एक दोहा सुनाकर पृथ्वीराज को मार्गदर्शन दिया।
    • पृथ्वीराज ने बाण से गौरी का वध कर दिया।
    • हसन निजामी और अन्य समकालीन इतिहासकारों के अनुसार, पृथ्वीराज ने गौरी के अधीन शासक के रूप में कुछ समय तक शासन किया।

तराइन के युद्धों का प्रभाव

  1. द्वितीय युद्ध का महत्व:

    • यह युद्ध भारतीय इतिहास की एक निर्णायक घटना साबित हुआ।
    • मुस्लिम साम्राज्य की नींव भारत में स्थापित हुई।
    • गौरी ने कन्नौज, गुजरात, बिहार जैसे क्षेत्रों पर भी विजय प्राप्त की।
  2. राजपूत शक्ति का अंत नहीं:

    • तराइन के बाद भी चौहान वंश की शाखाएँ रणथंभौर, जालौर, हाड़ौती और आबू में सक्रिय रहीं।
    • राजपूत शक्ति उत्तरी और पश्चिमी भारत में बनी रही।

साहित्यिक उल्लेख

  1. पृथ्वीराज रासो (चंदबरदाई):

    • इसमें पृथ्वीराज और गौरी के संघर्षों का वर्णन मिलता है।
    • पृथ्वीराज के शौर्य और वीरता की गाथाएँ अमर की गईं।
  2. समकालीन इतिहास:

    • हसन निजामी की ताज-उल-मासिर और सिराज की तबकात-ए-नासिरी में भी इन घटनाओं का उल्लेख है।

निष्कर्ष:
तराइन के युद्धों ने भारतीय राजनीति में एक नए युग की शुरुआत की। यद्यपि राजपूत शक्ति को झटका लगा, परंतु उनकी वीरता और संघर्ष की भावना भारतीय इतिहास में सदैव अमर रहेगी।



हम्मीर देव चौहान (रणथंभौर के अंतिम प्रतापी शासक)

हम्मीर देव चौहान वंश के सबसे शक्तिशाली और प्रसिद्ध शासक माने जाते हैं।

  1. राज्य विस्तार:

    • उन्होंने दिग्विजय नीति अपनाकर अपने राज्य का विस्तार किया।
    • हम्मीर ने कई युद्ध जीते और अपना परचम फहराया।
  2. अलाउद्दीन खिलजी का आक्रमण:

    • हम्मीर देव ने अलाउद्दीन खिलजी के विद्रोही सेनापति मुहम्मद शाह को शरण दी।
    • यह घटना अलाउद्दीन खिलजी के रणथंभौर पर आक्रमण का कारण बनी।
    • 1301 ई. में रणथंभौर पर अंतिम युद्ध हुआ जिसमें हम्मीर चौहान की पराजय हुई।
  3. रणथंभौर का पहला साका:

    • हम्मीर देव की पत्नी रंगदेवी ने दुर्ग में जौहर किया।
    • सभी राजपूत योद्धाओं ने युद्धभूमि में वीरगति प्राप्त की।
    • 11 जुलाई, 1301 ई. को रणथंभौर दुर्ग अलाउद्दीन खिलजी के कब्जे में चला गया।
    • यह घटना राजस्थान के पहले साके के रूप में जानी जाती है।
  4. अमीर खुसरो का उल्लेख:

    • प्रसिद्ध कवि अमीर खुसरो इस युद्ध के दौरान अलाउद्दीन खिलजी की सेना के साथ थे।

हम्मीर की उपलब्धियाँ

  1. 17 युद्धों में से 16 में विजय:
    • हम्मीर ने अपने जीवन में कुल 17 युद्ध किए, जिनमें से 16 में उन्होंने जीत हासिल की।
  2. कोटी यज्ञ यज्ञ:
    • उन्होंने पंडित विश्वभट्ट (विश्वरूप) के नेतृत्व में एक भव्य कोटी यज्ञ यज्ञ का आयोजन करवाया।
  3. नयनचंद्र सूरी का हम्मीर महाकाव्य:
    • प्रसिद्ध कवि नयनचंद्र सूरी ने अपने ग्रंथ हम्मीर महाकाव्य में हम्मीर की विजय और पराक्रम का उल्लेख किया है।

रणथंभौर के चौहान वंश का योगदान

रणथंभौर के चौहान वंश ने मुस्लिम आक्रमणों के समय भारतीय संस्कृति और गौरव की रक्षा के लिए निरंतर संघर्ष किया। हम्मीर देव का साहस और बलिदान आज भी भारतीय इतिहास में वीरता और स्वाभिमान का प्रतीक बना हुआ है।


जालौर के चौहान वंश का इतिहास

जालौर, जो दिल्ली से गुजरात और मालवा जाने के मार्ग पर स्थित है, भारतीय इतिहास में एक महत्वपूर्ण स्थान रखता है। यह प्राचीन काल में गुर्जर प्रदेश का हिस्सा था और इसका प्राचीन नाम जाबालीपुर या जालहुर था। यहाँ का किला, जिसे सुवर्णगिरी कहा जाता था, रणनीतिक और ऐतिहासिक दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण था।


प्रारंभिक इतिहास

  1. प्रतिहार शासन:

    • 8वीं से 11वीं सदी तक जालौर पर प्रतिहारों का शासन रहा।
    • प्रतिहार नरेश नागभट्ट प्रथम ने इसे अपनी राजधानी बनाया और संभवतः जालौर दुर्ग का निर्माण भी करवाया।
  2. परमार शासन:

    • प्रतिहारों के बाद जालौर पर परमारों ने शासन किया।
  3. सोनगरा चौहानों का उदय:

    • 13वीं सदी में सोनगरा चौहानों ने परमारों को पराजित कर जालौर पर अपना अधिकार स्थापित किया।
    • इस वंश की स्थापना कीर्तिपाल चौहान ने की, जो नाडोल शाखा से संबंधित थे।
    • सुण्डा पर्वत अभिलेख में कीर्तिपाल को 'राजेश्वर' कहा गया है।

सोनगरा चौहानों के शासक और उनकी उपलब्धियाँ

  1. समरसिंह:

    • समरसिंह ने जालौर दुर्ग को और सुदृढ़ बनाया।
    • उन्होंने चालुक्य शासक भीमदेव द्वितीय के साथ अपनी पुत्री लीलादेवी का विवाह कर रणनीतिक संबंध स्थापित किए।
  2. उदयसिंह:

    • समरसिंह के पुत्र उदयसिंह सोनगरा वंश के सबसे शक्तिशाली शासक थे।
    • उन्होंने दिल्ली के सुल्तान इल्तुतमिश के आक्रमण को असफल कर उसे वापस लौटने पर मजबूर किया।
  3. कान्हड़देव सोनगरा:

    • कान्हड़देव सोनगरा (1305-1311 ई.) इस वंश के अंतिम प्रमुख शासक थे।

अलाउद्दीन खिलजी के आक्रमण

  1. सिवाना दुर्ग का पतन (1308 ई.):

    • जालौर के रास्ते में पड़ने वाले सिवाना दुर्ग पर सबसे पहले हमला हुआ।
    • वीर सातल और सोम दुर्ग की रक्षा करते हुए वीरगति को प्राप्त हुए।
    • खिलजी ने दुर्ग का नाम खैराबाद रखा और कमालुद्दीन गुर्ग को दुर्ग रक्षक नियुक्त किया।
  2. जालौर दुर्ग पर आक्रमण (1311 ई.):

    • अलाउद्दीन ने जालौर दुर्ग पर आक्रमण कर कई दिनों तक घेरा डाला।
    • अंतिम युद्ध में कान्हड़देव और उनके पुत्र वीरमदेव ने वीरता पूर्वक युद्ध करते हुए वीरगति प्राप्त की।
    • इस विजय के बाद अलाउद्दीन ने जालौर में एक मस्जिद का निर्माण करवाया।

महत्वपूर्ण साक्ष्य

  1. कान्हड़दे प्रबंध:

    • कवि पद्मनाभ के ग्रंथ 'कान्हड़दे प्रबंध' में इस युद्ध और सोनगरा वंश का विस्तृत वर्णन मिलता है।
  2. वीरमदेव सोनगरा की वात:

    • वीरमदेव सोनगरा के शौर्य और बलिदान का उल्लेख इस काव्य में मिलता है।

जालौर के सोनगरा वंश की विशेषताएँ

  • सोनगरा चौहान शासकों ने अपने दुर्गों और किलों को न केवल सैन्य दृष्टि से सुदृढ़ बनाया, बल्कि राजनैतिक कूटनीति से भी अपने साम्राज्य को सुदृढ़ किया।
  • इन शासकों ने बाहरी आक्रमणकारियों के सामने वीरता का परिचय देते हुए अपनी मातृभूमि की रक्षा के लिए बलिदान दिया।
  • जालौर दुर्ग का पतन केवल एक क्षेत्रीय घटना नहीं थी, बल्कि यह भारतीय स्वतंत्रता और संस्कृति की रक्षा में किए गए बलिदानों का प्रतीक बन गया।

जालौर के सोनगरा चौहानों का इतिहास साहस, वीरता और आत्मसम्मान की गाथा है, जो भारतीय इतिहास में सदैव अमर रहेगा।






नाडोल के चौहान


चौहानों की नाडोल शाखा शाकम्भरी चौहानों से निकली सबसे प्राचीन शाखा थी। इसका संस्थापक लक्ष्मण चौहान था, जो शाकम्भरी नरेश वाक्पति का पुत्र था।

  • स्थापना: लक्ष्मण चौहान ने 960 ई. के आसपास चावड़ा राजपूतों के आधिपत्य से स्वतंत्र होकर इस शाखा की स्थापना की।
  • यह शाकम्भरी के चौहानों के बाद पहला स्वतंत्र चौहान राज्य था।
  • कीर्तिपाल चौहान:
    • 1177 ई. में कीर्तिपाल चौहान ने मेवाड़ शासक सामन्तसिंह को पराजित कर मेवाड़ को अपने अधीन कर लिया।
    • इसने चौहान वंश की शक्ति को राजस्थान में मजबूत किया।
  • विलय:
    • 1205 ई. के आसपास नाडोल के चौहान जालौर की चौहान शाखा में विलीन हो गए।


सिरोही के चौहान


सिरोही में चौहानों की देवड़ा शाखा का शासन था।

  • स्थापना:
    • 1311 ई. में लुम्बा देवड़ा ने इस शाखा की स्थापना की।
    • प्रारंभ में उनकी राजधानी चन्द्रावती थी।
  • सिरोही नगर की स्थापना (1425):
    • मुस्लिम आक्रमणों के कारण सहासमल देवड़ा ने 1425 ई. में सिरोही नगर की स्थापना कर इसे अपनी राजधानी बनाया।
  • महाराणा कुंभा का आधिपत्य:
    • सहासमल के समय में महाराणा कुंभा ने सिरोही को अपने अधीन कर लिया।

दत्ताणी का युद्ध (1583):

  • युद्ध:
    • 1583 ई. में सिरोही के महाराव सुरताण ने अकबर की सेना को हराया।
    • इस युद्ध में अकबर ने शाही फौज के साथ मेवाड़ के जगमाल (महाराणा प्रताप के भाई) और मारवाड़ के रायसिंह (बीकानेर) को भेजा था।
  • यह युद्ध सिरोही के साहस और सैन्य कौशल का प्रतीक माना जाता है।

ब्रिटिश काल:

  • 1823 ई.:
    • सिरोही के शासक शिवसिंह ने ईस्ट इंडिया कम्पनी से संधि की, जिसके तहत राज्य की सुरक्षा का जिम्मा कम्पनी को सौंप दिया।

स्वतंत्रता के बाद:

  • 1950 ई.:
    • स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद सिरोही राज्य का राजस्थान में विलय हुआ।
    • यह जनवरी 1950 में भारतीय गणराज्य का हिस्सा बना।

सिरोही और नाडोल चौहानों की विशेषताएँ

  1. सैन्य पराक्रम:
    • नाडोल और सिरोही के चौहान अपने सैन्य कौशल और रणनीति के लिए प्रसिद्ध थे।
  2. संस्कृति और प्रशासन:
    • इन शाखाओं ने अपने क्षेत्र में समृद्ध सांस्कृतिक और प्रशासनिक व्यवस्थाएँ स्थापित कीं।
  3. स्वतंत्रता और साहस:
    • सिरोही के देवड़ा चौहान ने दत्ताणी के युद्ध में अकबर की सेना को हराकर अपनी स्वतंत्रता और वीरता का परिचय दिया।
  4. इतिहास में योगदान:
    • दोनों शाखाओं ने राजपूत शक्ति को बनाए रखने और राजस्थान के इतिहास में महत्वपूर्ण योगदान दिया।




हाड़ौती के चौहान

हाड़ौती क्षेत्र में वर्तमान बूँदी, कोटा, झालावाड़, और बारां शामिल हैं। यह क्षेत्र महाभारत काल से ही मत्स्य (मीणा) जाति का निवास स्थान था।


बूँदी के चौहान

स्थापना:

  • 1241 ई. में देवा हाड़ा चौहान ने बूँदी पर शासन स्थापित किया।
    • उसने मीणा शासक जैता को पराजित किया।
    • देवा नाडोल के चौहानों का वंशज था।
  • बूँदी का नाम वहाँ के शासक बूँदा मीणा के नाम पर पड़ा।

बूँदी और मेवाड़:

  • मेवाड़ नरेश क्षेत्रसिंह ने बूँदी पर आक्रमण कर इसे अपने अधीन कर लिया।
  • लंबे समय तक बूँदी का शासन मेवाड़ के अधीन रहा।
  • 1569 ई.:
    • बूँदी के शासक सुरजन सिंह ने अकबर से संधि कर मुगल आधीनता स्वीकार की।
    • इसके बाद बूँदी मेवाड़ से स्वतंत्र हो गया।

कोटा का गठन:

  • 1631 ई.:
    • मुगल बादशाह शाहजहाँ ने बूँदी से कोटा को अलग कर दिया।
    • बूँदी के शासक रतनसिंह के पुत्र माधोसिंह को कोटा का शासक नियुक्त किया।

फर्रुखशियर का आदेश:

  • मुगल बादशाह फर्रुखशियर ने बूँदी नरेश बुद्धसिंह को जयपुर नरेश के खिलाफ अभियान पर न जाने के कारण बूँदी का नाम फर्रुखाबाद रख दिया।
  • इसे कुछ समय के लिए कोटा नरेश को सौंप दिया गया।
  • बाद में बुद्धसिंह को बूँदी का राज्य वापस मिल गया।

मराठों का हस्तक्षेप:

  • 1734 ई.:
    • राजस्थान में मराठों का सर्वप्रथम प्रवेश बूँदी में हुआ।
    • बूँदी की रानी आनंद (अमर) कुँवरी ने अपने पुत्र उम्मेदसिंह के पक्ष में मराठा सरदार होल्कर और राणोजी को बुलाया।

मराठा संधि:

  • 1818 ई.:
    • बूँदी के शासक विष्णुसिंह ने मराठों से सुरक्षा हेतु ईस्ट इंडिया कम्पनी से संधि की।
    • इसके तहत बूँदी की सुरक्षा का भार अंग्रेजी सेना पर हो गया।

स्वतंत्रता और विलय:

  • स्वतंत्रता के बाद बूँदी का राजस्थान संघ में विलय हुआ और यह भारतीय गणराज्य का हिस्सा बना।

महत्वपूर्ण घटनाएँ:

  1. 1241 ई.: देवा हाड़ा चौहान द्वारा बूँदी में चौहान वंश की स्थापना।
  2. 1569 ई.: बूँदी का अकबर के अधीन होना।
  3. 1631 ई.: शाहजहाँ द्वारा कोटा का गठन।
  4. 1734 ई.: मराठों का हस्तक्षेप।
  5. 1818 ई.: अंग्रेजों से सुरक्षा हेतु संधि।
  6. स्वतंत्रता के बाद: बूँदी का राजस्थान में विलय।

बूँदी ने अपने शासनकाल में हाड़ौती क्षेत्र में संस्कृति, कला और वास्तुकला के विकास में महत्वपूर्ण योगदान दिया।





कोटा के चौहान


कोटा प्रारंभ में बूँदी रियासत का हिस्सा था और यहाँ हाड़ा चौहानों का शासन था।
1631 ई. में मुगल बादशाह शाहजहाँ ने बूँदी नरेश राव रतनसिंह के पुत्र माधोसिंह को कोटा का पृथक राज्य प्रदान कर इसे स्वतंत्र रियासत बना दिया।

कोटा नाम की उत्पत्ति

  • प्रारंभ में कोटा क्षेत्र कोटिया भील के नियंत्रण में था।
  • बूँदी के चौहान वंश के संस्थापक देवा चौहान के पौत्र जैत्रसिंह ने कोटिया भील को पराजित कर इस क्षेत्र पर अधिकार किया।
  • कोटिया भील के नाम पर इस क्षेत्र का नाम कोटा पड़ा।

प्रमुख शासक और घटनाएँ

मुकुन्द सिंह हाड़ा (1648–1658 ई.)

  • माधोसिंह के पुत्र मुकुन्द सिंह ने शासन किया।
  • उन्होंने अपनी पासवान अबली मीणी की याद में दर्रा अभ्यारण्य में अबली-मीणी का महल बनवाया।
    • इसे हाड़ौती का ताजमहल कहा जाता है।
  • 1658 ई. में धरमत के युद्ध में शाही सेना की ओर से लड़ते हुए औरंगजेब के विरुद्ध वीरगति को प्राप्त हुए।

किशोर सिंह हाड़ा

  • कोटा के शासक किशोर सिंह ने किशोर सागर तालाब का निर्माण करवाया।
  • यह तालाब कोटा की वास्तुकला और जल संरक्षण का प्रमुख उदाहरण है।

रामसिंह प्रथम (1696–1707 ई.)

  • रामसिंह प्रथम ने औरंगजेब के उत्तराधिकार युद्ध में उसके पुत्र आजम का साथ दिया।
  • जाजऊ के युद्ध (1707 ई.) में लड़ते हुए उनकी मृत्यु हो गई।

कोटा की विशेषता

  1. संस्कृति और वास्तुकला:
    • अबली-मीणी का महल और किशोर सागर तालाब कोटा की स्थापत्य विरासत के उदाहरण हैं।
  2. स्वतंत्र राज्य के रूप में पहचान:
    • 1631 ई. में कोटा को बूँदी से अलग कर स्वतंत्र राज्य बनाया गया।
  3. प्राकृतिक संरक्षण:
    • कोटा के आसपास के क्षेत्रों में प्राकृतिक संरक्षित स्थल, जैसे दर्रा अभ्यारण्य, स्थापत्य और पर्यावरण संरक्षण का प्रतीक हैं।

कोटा का हाड़ा चौहान वंश राजस्थान के इतिहास में अपनी वीरता और कला संरक्षण के लिए प्रसिद्ध है।



कोटा के प्रमुख शासक और उनकी विशेषताएँ

भीम सिंह प्रथम (1707–1720 ई.)

  • वल्लभ संप्रदाय के अनुयायी थे और भक्ति के प्रति समर्पित।
  • इन्हें कोटा का सबसे प्रभावशाली शासक माना जाता है।
  • मुगल बादशाह बहादुरशाह प्रथम ने इन्हें "महाराव" की उपाधि दी।
  • प्रमुख कार्य:
    • खींची शासकों से गागरोन दुर्ग छीन लिया।
    • बूंदी पर आक्रमण कर राजा बुधसिंह को हराया और बूंदी का नाम बदलकर फर्रुखाबाद रखा।
    • शासन छोड़कर भक्ति का मार्ग अपनाया और अपना नाम कृष्ण दास रखा।
    • कोटा का नाम बदलकर नन्दगाँव रखा।
    • बारां जिले में प्रसिद्ध सांवरिया जी का मंदिर बनवाया।

दुर्जनशाल हाड़ा

  • इनके समय में मराठों का कोटा रियासत में प्रवेश हुआ।
  • मराठों की बढ़ती ताकत के कारण राज्य की स्थिति चुनौतीपूर्ण हुई।

शत्रुशाल

  • इस दौरान कोटा के प्रशासन में झाला जालिमसिंह का प्रभाव बढ़ा।
  • भटवाड़ा का युद्ध (1761):
    • इसमें कोटा की सेना ने जयपुर नरेश माधोसिंह की सेना को हराया।
    • इस विजय के बाद प्रशासनिक अधिकार धीरे-धीरे जालिमसिंह के पास चले गए।
    • जालिमसिंह कोटा का वास्तविक प्रशासक बन गया।

उम्मेदसिंह

  • 1817 ई. में अंग्रेजों के साथ पूरक संधि की।
  • संधि की मुख्य शर्तें:
    1. उम्मेदसिंह और उनके वंशज कोटा के राजा बने रहेंगे।
    2. झाला जालिमसिंह और उनके वंशज कोटा के दीवान बने रहेंगे।
    3. कोटा की प्रमुख प्रशासनिक शक्तियाँ दीवान के पास रहेंगी।

किशोर सिंह

  • मांगरोल का युद्ध (1821):
    • झाला जालिमसिंह ने मांगरोल नगर में राजा किशोर सिंह को हराया।
    • इस युद्ध में प्रसिद्ध ब्रिटिश इतिहासकार जेम्स टॉड ने जालिमसिंह का समर्थन किया।
    • इस विजय के बाद जालिमसिंह का प्रशासन पर और अधिक नियंत्रण हो गया।

विशेषताएँ और योगदान

  1. भक्ति और वास्तुकला:
    • सांवरिया जी का मंदिर और वल्लभ संप्रदाय का प्रसार।
  2. राजनीतिक परिवर्तन:
    • कोटा में दीवान के रूप में जालिमसिंह का प्रभाव।
  3. अंग्रेजी सन्धि:
    • अंग्रेजों के साथ सन्धि ने कोटा को एक नई राजनीतिक व्यवस्था में ढाला।
  4. युद्ध और विजय:
    • भटवाड़ा और मांगरोल के युद्धों में कोटा का प्रभुत्व।

कोटा के शासकों ने राजनीतिक, धार्मिक, और सांस्कृतिक क्षेत्रों में महत्वपूर्ण योगदान दिया, जो राज्य के इतिहास में अमूल्य है।



झाला जालिमसिंह (1769–1823 ई.)

  • कोटा राज्य के प्रधानमंत्री और वीर दुर्गादास राठौड़ की तरह सम्मानित।
  • मराठों, अंग्रेजों और पिंडारियों से अच्छे संबंध बनाए रखे, जिससे कोटा इनसे सुरक्षित रहा।
  • 1817 ई. में कोटा राज्य की ओर से ईस्ट इंडिया कंपनी के साथ संधि की।
  • उनके प्रभावशाली प्रशासनिक कार्यों ने कोटा को मजबूत और संगठित बनाया।

झालावाड़ की स्थापना

  1. झालावाड़ राज्य का गठन (1838):
    • झाला जालिमसिंह के पोते मदनसिंह झाला ने कोटा से अलग होकर झालावाड़ राज्य की स्थापना की।
    • यह राजस्थान में अंग्रेजों द्वारा स्थापित सबसे नई रियासत थी।
    • अंग्रेजों ने 1838 ई. में इस रियासत को मान्यता दी।
  2. राजधानी:
    • झालरापाटन को राजधानी बनाया गया।
    • यह चन्द्रभागा नदी के किनारे स्थित है।
    • झालरापाटन को "घंटियों का शहर" कहा जाता है।
  3. प्राचीन मंदिर:
    • यहां स्थित शीतलेश्वर महादेव मंदिर राजस्थान का सबसे प्राचीन तिथि युक्त (689 ई.) मंदिर है।

झालावाड़ के प्रमुख शासक

1. मदनसिंह झाला

  • 1837 में कोटा से अलग होकर झालावाड़ की स्थापना की।
  • झालावाड़ राजस्थान की सबसे नई रियासत थी।
  • शासन के दौरान शहर के विकास और प्रशासन में सुधार किया।

2. राजेन्द्र सिंह

  • काष्ठ प्रासाद (लकड़ी से निर्मित महल) का निर्माण करवाया।
  • समाज सुधार में योगदान दिया।
    • मंदिरों को सभी जातियों के लिए खुलवाया, जिससे समाज में समरसता आई।

झालावाड़ का राजस्थान में विलय (1947-48)

  • 1947 में भारत की स्वतंत्रता के बाद, मार्च 1948 में कोटा का राजस्थान संघ में विलय हुआ।
  • महाराव भीमसिंह कोटा के राजप्रमुख बने।
  • झालावाड़ का भी राजस्थान में एकीकरण कर दिया गया।

महत्वपूर्ण विशेषताएँ

  1. राजनीतिक कौशल:
    • जालिमसिंह ने मराठों, अंग्रेजों, और पिंडारियों के साथ संतुलन बनाए रखा।
  2. राजनीतिक विभाजन:
    • कोटा से अलग झालावाड़ रियासत का निर्माण राजस्थान के इतिहास में एक महत्वपूर्ण घटना है।
  3. धार्मिक और सामाजिक सुधार:
    • राजेन्द्र सिंह के प्रयासों से समाज सुधार की दिशा में महत्वपूर्ण कदम उठाए गए।
  4. संस्कृति और वास्तुकला:
    • शीतलेश्वर महादेव मंदिर और काष्ठ प्रासाद जैसी संरचनाएँ।

झालावाड़ और कोटा के शासकों ने राजस्थान के राजनीतिक, सामाजिक, और सांस्कृतिक विकास में अमूल्य योगदान दिया।