राजस्थान की पहचान उसके रंगीन परिधानों, लोक संस्कृति और विशिष्ट आभूषणों से होती है। आभूषण न केवल शरीर को सजाते हैं बल्कि यह व्यक्ति की सामाजिक स्थिति, पारंपरिक मूल्यों और सांस्कृतिक विरासत को भी प्रदर्शित करते हैं। राजस्थान की स्त्रियाँ अपने पारंपरिक गहनों के लिए देश-विदेश में प्रसिद्ध हैं। ये गहने सिर्फ सोने-चांदी तक सीमित नहीं हैं, बल्कि इनकी विविधता, डिज़ाइन और निर्माण शैलियाँ अद्भुत होती हैं।
🔹 आभूषणों का ऐतिहासिक संदर्भ
राजस्थान में आभूषणों का इतिहास हजारों साल पुराना है। कालीबंगा, आहड़ और अन्य हड़प्पा-पूर्व सभ्यताओं में महिलाओं द्वारा मिट्टी, पत्थर और कौड़ियों से बने गहनों का इस्तेमाल होने के प्रमाण मिले हैं। शुंगकालीन मूर्तियों और खिलौनों में महिलाओं के गले, हाथ और पाँव में विभिन्न प्रकार के आभूषणों की झलक मिलती है।
साहित्यिक ग्रंथों जैसे समरादित्य कथा, कुवलयमाला, फ्यूमश्रीचर्या में भी आभूषणों का सजीव वर्णन मिलता है। इनमें ‘चूड़ारत्न’, ‘मणिश्रृंखला’, ‘कंठिका’, ‘आमुक्तावली’ जैसे शब्दों से आभूषणों का उल्लेख किया गया है।
राजस्थान की पारंपरिक वेशभूषा: संस्कृति, परंपरा और पहचान का प्रतीक
राजस्थान, भारत का वह प्रांत है जो अपनी रंगीन संस्कृति, भव्य महलों और गौरवशाली इतिहास के लिए जाना जाता है। लेकिन इन सबसे अधिक जो बात इस भूमि को खास बनाती है, वह है यहाँ की पारंपरिक वेशभूषा। राजस्थान की वेशभूषा केवल एक वस्त्र नहीं, बल्कि वह झरोखा है जिससे वहाँ के समाज, मौसम, आर्थिक स्थिति और सांस्कृतिक धरोहर की झलक मिलती है।🔸
वेशभूषा का ऐतिहासिक संदर्भ
राजस्थान की वेशभूषा का इतिहास हजारों वर्षों पुराना है। कालीबंगा, आहड़, रंगमहल और बैराठ जैसी प्राचीन सभ्यताओं में खुदाई के दौरान मिले उपकरणों जैसे चरखा, तकली, सूत कातने की चकरी से यह स्पष्ट होता है कि यहाँ रुई के वस्त्रों का उपयोग प्राचीन समय से होता रहा है।
प्राचीन काल में पुरुष धोती, उत्तरीय वस्त्र (जो कंधे पर लपेटा जाता था), और सिर पर पगड़ी पहनते थे। महिलाएँ कमर से नीचे लहराता हुआ घाघरा, ऊपर की ओर चोली और सिर पर ओढ़नी या घूंघट पहनती थीं। यह शैली आज भी ग्रामीण अंचलों में देखने को मिलती है।
भौगोलिक और सामाजिक प्रभाव
राजस्थान का बड़ा भाग थार मरुस्थल में स्थित है। यहाँ दिन में तेज गर्मी और रात में सर्दी का प्रकोप होता है। इसलिए वेशभूषा हल्के, ढीले और पूरे शरीर को ढकने वाले होते हैं, जो गर्मी से भी बचाते हैं और धूल से भी।
ग्रामीण और आदिवासी क्षेत्रों में अब भी पारंपरिक वेशभूषा प्रमुखता से पहनी जाती है जबकि शहरी क्षेत्रों में आधुनिकता का प्रभाव दिखता है।
पुरुषों की पारंपरिक वेशभूषा
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पगड़ी/साफा
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यह पुरुषों की पहचान का प्रतीक होती है। यह सामाजिक स्थिति, जाति, और अवसर के अनुसार भिन्न होती है।
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उदाहरण: जोधपुरी सफा, जयपुरी पगड़ी, मेवाड़ी पगड़ी।
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अंगरखा
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यह एक प्रकार का कुर्ता होता है, जिसे सर्दियों में पहना जाता है।
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धोती/पायजामा
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यह कमर के नीचे पहना जाता है। धोती को विशेष प्रकार से बाँधा जाता है।
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कमरबंद
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यह पगड़ी की तरह ही पुरुष की वेशभूषा का अभिन्न अंग होता है।
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जूती (मोजड़ी)
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चमड़े से बनी पारंपरिक जूती, जिसमें सुनहरी कढ़ाई होती है।
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👩🦰 महिलाओं की पारंपरिक वेशभूषा
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घाघरा
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यह एक लंबी, गोलाकार स्कर्ट होती है जिसे साड़ियों की तरह आकर्षक रंगों और कढ़ाई के साथ सजाया जाता है।
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कांचली/चोली
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यह ऊपरी भाग को ढकने के लिए होता है। यह शरीर से फिट होता है और गोटा-पट्टी से सजा होता है।
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ओढ़नी/घूंघट
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सिर पर डाली जाती है, यह महिलाओं की मर्यादा और पारंपरिकता का प्रतीक मानी जाती है।
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लहंगा-चुन्नी
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त्योहारों और विवाह अवसरों पर विशेष प्रकार से रेशमी, मखमली और कढ़ाईदार परिधानों को प्राथमिकता दी जाती है।
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🎨 वस्त्रों के रंग और डिज़ाइन
राजस्थान के वस्त्र रंग-बिरंगे और आकर्षक डिज़ाइनों वाले होते हैं। इसके पीछे दो कारण हैं:
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मरुस्थली क्षेत्र की एकरूपता को तोड़ने के लिए रंगों का उपयोग।
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सामाजिक श्रेणियों और अवसरों के अनुसार कपड़ों के रंग का चुनाव।
लाल, पीला, हरा, नीला, गुलाबी, नारंगी – ये सभी रंग राजस्थान की संस्कृति को दर्शाते हैं।
पारंपरिक वस्त्र निर्माण कला
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बांधनी (Bandhani)
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यह बंधेज शैली की कढ़ाई है जो विशेष प्रकार के टाई-डाई से बनती है। जोधपुर और जैसलमेर में प्रसिद्ध।
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गोटा-पट्टी कार्य
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यह सुनहरे और चांदी के धागों से वस्त्र पर किया जाने वाला शाही कढ़ाई का कार्य है।
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मलमल, टसर, किमखाब, मखमल
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यह सभी कपड़े विशेष अवसरों पर प्रयुक्त होते हैं। पुराने काल में उच्च वर्ग की महिलाएं इन परिधानों को पहनती थीं।
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अवसरों के अनुसार वेशभूषा
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त्योहारों पर – भारी गोटा-पट्टी वाले लहंगे-चुन्नी।
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विवाह में – रेशमी लहंगा, चूड़ा, सजीव गहनों से सजी वेशभूषा।
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सामान्य दिनचर्या – सूती और बंधेज के कपड़े।
👳♂️ राजस्थान की पारंपरिक पगड़ी
क्रम | पगड़ी का प्रकार | विवरण |
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1 | मोठड़ा पगड़ी | विवाह के अवसर पर पहनी जाती है। |
2 | लहरिया पगड़ी | श्रावण मास में पहनी जाती है। जयपुर की लहरिया पगड़ी को राजशाही पगड़ी कहते हैं। |
3 | मदील | दशहरे के अवसर पर पहनी जाती है। |
4 | केसरिया पगड़ी | दीपावली के अवसर पर पहनी जाती है। |
5 | फूल पत्ती पगड़ी | होली के अवसर पर विशेष रूप से पहनी जाती है। |
6 | सुनार व बनजारे की पगड़ी | सुनार आँटे वाली, बनजारे मोटी पट्टेदार पगड़ी पहनते थे। |
7 | विश्व की सबसे बड़ी पगड़ी | बागौर संग्रहालय, उदयपुर में संरक्षित है। |
8 | छाबदार | मेवाड़ में पगड़ी बांधने वाले व्यक्ति को कहते हैं। |
9 | तुर्रा, सरपेच, धुगधुगी | पगड़ियों में सजावट के लिए प्रयोग होते हैं। |
10 | उतरणी और बालाबंदी | पगड़ी पर बाँधा जाने वाला फीता। सादा हो तो 'उतरणी', सोने-चाँदी का हो तो 'बालाबंदी'। |
11 | दातिया | दाढ़ी संवारने के लिए ठोड़ी के ऊपर बाँधा जाता था। |
12 | जोधपुरी साफा | राजस्थान का प्रसिद्ध साफा, जसवंत सिंह द्वितीय के समय से प्रसिद्ध। |
13 | जोधपुरी कोट-पैंट | जिसे अब राष्ट्रीय पोशाक का दर्जा प्राप्त है। |
👗 राजस्थान की पारंपरिक वेशभूषा
वस्त्र | विवरण |
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पगड़ी | पगड़ी को पाग, पेंचा, बागा कहते हैं। लहरिया, मोठड़ा, मदील, केसरिया आदि विविध अवसरों पर पहनी जाती हैं। जोधपुरी साफा प्रसिद्ध। |
रियासती पगड़ियां | जसवंतशाही, भीमशाही, राठौड़ी, अमरशाही, मानशाही, शाहजहांनी आदि प्रमुख रियासती शैलियाँ। |
अंगरखी | ऊपरी वस्त्र, अन्य नाम - अचकन, बुगतरी, मिरजाई, डगला, तनसुख आदि। |
चौगा | सम्पन्न वर्ग द्वारा अंगरखी के ऊपर पहना जाता है। तनजेब, जामदानी के चौगे गर्मियों में पहने जाते हैं। |
जामा | विशेष अवसरों पर घुटनों तक पहना जाने वाला पारंपरिक वस्त्र। |
आत्मसुख | सर्दियों में अंगरखी पर पहनने वाला गर्म वस्त्र। |
पटका | कमरबंद, जिसमें तलवार या कटार लटकाई जाती थी। |
ब्रीचेस | ब्रिटिश कालीन वस्त्र, घुटनों तक टाईट और ऊपर से चौड़ा। |
पछेवड़ा / घुघी | ग्रामीण क्षेत्रों में खेतों में काम के दौरान ओढ़ने वाला वस्त्र। |
वस्त्र | विवरण |
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ओढ़नी | पोमचा, पवरी, कंवरजोड़, लहरिया, गंडादार, मोठड़ा, दामणी, चीड़ का पोमचा आदि विविध रूपों में। |
कुर्ती-कांचली | स्त्रियों द्वारा पहना जाने वाला शरीर के ऊपरी हिस्से का वस्त्र। अंगी (बिना बाँह की चोली) भी शामिल। |
कापड़ी | पीठ पर तनियों से बाँधी जाती है, दो कपड़े जोड़कर बनाई जाती है। |
तिलका | मुस्लिम स्त्रियाँ चूड़ीदार पाजामे पर तिलका पहनती हैं और ऊपर से ओढ़नी ओढ़ती हैं। |
साड़ी | साड़ी के अनेक नाम जैसे - चोल, निचोल, पट, अंसुक, चीर, पोमचा, धोरीवाली आदि। |
फड़का | मराठी शैली में पहनी जाने वाली साड़ी। |
जाम साई | आदिवासी महिलाओं द्वारा पहनी जाने वाली पारंपरिक साड़ी। |
कोटा डोरिया | कोटा की प्रसिद्ध साड़ी, 1999-2000 में GI टैग मिला। |
सूंठ साड़ी | सवाई माधोपुर की प्रसिद्ध पारंपरिक साड़ी। |
🌾 आदिवासी समुदाय की पारंपरिक वेशभूषा
वस्त्र | विवरण |
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पोतिया | पगड़ी के स्थान पर सिर पर बांधा जाने वाला वस्त्र, आदिवासी पुरुषों द्वारा पहना जाता है। |
सलूका | सहरिया पुरुषों की अंगरखी। सादी लंबी कमीज़ जैसी होती है। |
ठेपाड़ा / ढेपाड़ा | भील पुरुषों द्वारा पहनी जाने वाली तंग धोती। |
खोयतू | कमर पर बांधी जाने वाली पारंपरिक लंगोट, भील पुरुषों में प्रचलित। |
पंछा | सहरिया पुरुषों की पारंपरिक धोती। |
लंगोटिया भील | खोयतू (कमर की लंगोट) और स्त्रियों में कछावू (घुटनों तक का घाघरा) पहनने वाले भील। |
पोतीद्दा भील | धोती, बनियान (बंडी), फालु (कमर का अंगोछा) पहनते हैं। |
वस्त्र | विवरण |
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कटकी | अविवाहित बालिकाओं की ओढ़नी, जिसे पावली भांत की ओढ़नी भी कहते हैं। |
लंगड़ा | विवाहित स्त्रियों की ओढ़नी, सफेद जमीन पर लाल रंग की बूटी; इसे अंगोछा साड़ी भी कहते हैं। |
तारा भांत | छोटे तारों जैसी डिजाइन वाली ओढ़नी, आदिवासी महिलाओं में लोकप्रिय। |
ज्वार भांत | ज्वार के दानों जैसी बिंदियों वाली, बेल-बूटेदार पल्लू वाली ओढ़नी। |
लहर भांत | लहरिया शैली की ओढ़नी जिसमें ज्वार भांत जैसी बिंदियाँ होती हैं। |
केरी भांत | लाल जमीन पर सफेद और पीली बिंदियों वाली पारंपरिक ओढ़नी। |
सिंदूरी | भील महिलाओं द्वारा पहनी जाने वाली विशिष्ट लाल रंग की साड़ी। |
कछावू | लंगोटिया भील महिलाओं का घुटनों तक का घाघरा, जो लाल और काले रंग में होता है। |
रेनसाई | काले रंग पर भूरे-लाल रंग की बूटियों वाला आदिवासी लहंगा। |
नांदगा / नादड़ा | स्त्रियों का सबसे प्राचीन वस्त्र, छींटदार नीले रंग का पारंपरिक लहंगा। |
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